ये नदिया, ये पानी
ये मछलियों का होना,
कभी इस तट पर
कभी दूर तट पर,
घर से घराट तक
अन्न का पहुँचना,
व पानी की छपछप
व भूतों का भय छप,
अपने ही जीवों में
अपना ही मस्तक,
हिमगिरि के शिखरों का
गगन को छूना,
ये हमारा होना
चंचल हवा का बहना,
ये ऋतुओं का आना
गुनगुनी धूप का मिलना,
खेतो में फसल का
उगना और कटना,
हमारी लिखावट का
चलना और रूकना,
बचपन की डगर के
कहानी और किस्से,
उसी छाँव में
उठना और बैठना,
वहीं होली-दीवाली
वहीं दानव का मरना,
वहीं कृष्ण-कन्हैया
वहीं राधा का मिलना,
कुछ जय का होना
कुछ पराजय का मिलना,
हमारी निकटता का उदय और अस्त
भोर के अन्दर नक्षत्रों का चमकना,
अपनी कक्ष में ग्रहों का दिखना
हमारे भूगोल में
शताब्दियों का रहना,
जिन्दगी का यहाँ आना और जाना
कठिनाइयों का पल-पल दूर तक ठहरना
उल्लास में विविध पुष्पों का खिलना।
ढूंढो शहर तो राहें बहुत हैं,
गाँव को जाती सड़कें निडर हैं।
ये नदिया, ये पानी
ये बच्चों का होना,
कभी इस तट पर
कभी उस तट पर।
*** महेश रौतेला