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हे कृष्ण कब लौटूँ,किधर लौटूँ जब लौटूँ तो निरामय रहूँ। हे कृष्ण कब लौटूँ,किधर लौटूँ कैसे लौटूँ , लौटूँ अभिमन्यु की तरह या परीक्षित की तरह, या पांडवों की तरह हिमालय होकर या युधिष्ठिर की तरह सशरीर आऊँ, कुत्ते के साथ। *** *** महेश रौतेला
तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर पेड़-पौधों की बहुत सुन्दर छाया है। तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर नदियों में बहुत मीठा पानी है। तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर गाय-भैसों का बहुत सफेद दूध है। तुम हमारी बात में हम तुम्हारी बात में, निरक्षर फूलों पर बहुत सुन्दर रंग हैं। *** महेश रौतेला
मैंने बिछाई थी दृष्टि तुम्हारे लिए जैसे धूप बिछी होती है, खिसकाया था उसे जैसे देवदार की छाया खिसकती है। घुमायी थी दृष्टि पगडण्डियों की तरफ जहाँ तुम्हारा आना-जाना था। कितना जोड़-घटाना गुणा-भाग होता है जिन्दगी के अविभाज्य गणित में। *** महेश रौतेला
जब हम नदी पार कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम गाय और पशुओं को चारा दे रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम तीर्थयात्रा पर जा रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम स्नान कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम दान कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम परोपकार कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम प्यार कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम पूजा कर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम सत्य देख रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम फसल उगा रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। जब हम चल रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं, जब हम मर रहे होते हैं तो पवित्र हो रहे होते हैं। *** महेश रौतेला
कल फिर उदय होना मनुष्य की तरह, मैं देख सकूँ तुम्हें वसन्त की तरह। मन के छोर पकड़ते-पकड़ते थका नहीं हूँ, कुछ और दूरियां हैं शेष अभी रुका नहीं हूँ। फूल सुन्दर लगते हैं देखना छोड़ा नहीं, इस उदय-अस्त में चलना रुका नहीं। कल फिर दिखना नक्षत्र की तरह, मैं राह पर रहूँगा राहगीर की तरह। *** महेश रौतेला
वे तो हुये दुखहर्ता दुख लेकर क्यों आये! वे तो ठहरे त्रिकालदर्शी काल को क्यों छोड़ आये। *** महेश रौतेला
इस ओर हमारी घर की बातें उस ओर अमेरिकी धमकी है, जब यहाँ वेद-ऋचायें थीं उसका नाम नदारद था। इस ओर हमारा भारत है उस ओर नटखट बूढ़ा बालक है, कुटिल दृष्टि से देख रहा राक्षस बन वह बोल रहा है। महाभारत-रामायण की रेखायें हम खींचते जाते हैं, दुष्ट यहाँ भी बहुत हुये हम राक्षस हराना जानते हैं। *** महेश रौतेला
प्यार: प्यार होने में बहुत समय नहीं लगता वह प्राण की तरह आता प्राण की तरह जाता, जन्म की तरह प्रकट हो एक उल्लास भर देता है। वह पलभर में क्षणभर में, पेड़ की तरह खड़ा हो जाता है। रक्त में बह सांसों में आ-जा, प्रकाश की गति से अपना ब्रह्मांड बना लेता है। वह पलभर में क्षणभर में, शान्त नदी सा बहता अनन्त से मिल लेता है। सुर से सुर मिला स्वरों को समेटता, दुनिया को थपथपाता निराकार हो जाता है। जब चले थे अँगुलियों पर था, जब लौटेंगे आँसुओं पर होगा, जीवनभर का रिश्ता मौन में फँसा होगा। *** *** महेश रौतेला
राज्य-राज्य में राजनीति है देश हमारा निर्मल है, पग-पग पर दुष्ट खड़े हैं राष्ट्र हमारा पावन है। * महेश
हैरान हूँ,आवाक हूँ सृष्टि की पहिचान हूँ, हैरान हूँ, परेशान हूँ इसलिए कविता में हूँ। काँटों सा चुभता हूँ इसलिए फूलों में हूँ, इधर-उधर लुढ़कता हूँ इसलिए पथ पर हूँ। हैरान हूँ,समाचार हूँ इस सतत विकास में हूँ, मन से विचलित हूँ इसलिए आन्दोलित हूँ। इस भ्रष्टाचार में, इस सदाचार में, झूठ-सच से मिला कलियुगी समाधान हूँ। पहाड़ सा हूँ अतः धरती पर हूँ, टूटता-फूटता पर सतत खड़ा हूँ। *** महेश रौतेला
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