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सुख यहीं,दुख यहीं यहीं तो ये संगम बना, स्नान यहीं,स्थान यहीं यहीं तो रिश्ता हुआ। जो दो-चार बरस मिले वे सब नश्वर हुये, तुम्हारी बातों के लिए तुम्हें तो युवा युग मिले। यहीँ समुद्र पारकर हमें घर मिल गया, यहीं द्वेष छोड़कर हमें स्नेह मिल गया। सुख यहीं,दुख यहीं यहीं तो ये संगम बना, स्नान कर इसमें सदा हमें मोक्षबल यहीं मिला। मैं लूट भी इसे कहूँ मैं छूट भी इसे कहूँ, अमृत भी पीने लगूँ विष भी निगलने लगूँ। * महेश रौतेला
धरती तो कहते आयी गंगा तो बहकर जागी।
अभी अभी मैं पानी था अभी अभी हवा बना हूँ अभी अभी पिया गया अभी अभी सांसों में हूँ। कभी कभी प्यार में हूँ कभी कभी आग बना हूँ, कभी कभी खेतो में हूँ कभी कभी वृक्षों में हूँ। लौटकर देखूँ तो तक्षशिला, नालन्दा हूँ, अतीत के पन्नों से प्रस्फुटित फिर होने को हूँ। *** महेश रौतेला
अभी लिखी नहीं गयी चिट्ठी: अभी लिखी नहीं गयी चिट्ठी प्यार की, कहा नहीं गया शब्द मिठास का, हुई नहीं बात स्नेह की । अभी फूटे नहीं स्रोत सत्य के , अभी सम्भावना है प्यार की, मिठास की, स्नेह की, सत्य की । * महेश रौतेला २०१२
बहुत दिनों से प्यार शेष था जहाँ कहा था वहाँ नहीं था, कथा के अन्त में राधा-कृष्ण सा अटल खड़ा था। * महेश
राम से श्रीकृष्ण तक श्रीकृष्ण से राम तक देखा है मैंने भारत। शिव से सती तक सती से शिव तक देखा है मैंने भारत। *** महेश रौतेला
गहरी रातों में,गहरा जीवन भ्रष्टाचार के आगे नतमस्तक जीवन! मेरे घर का रंग सफेद हो यह चाह का एक अंग है, यह दुष्कर कार्य किसे प्रिय है परंपरा में यह नहीं है। कौन कह रहा मानव जगा है श्वेत हिम पर वह नहीं है, जिसके हाथ में लगी कालिख है उसका घर कहाँ साफ है! ** महेश रौतेला
यही गगन था,यही आसमान था मेरे बालपन का खुला प्रसंग था, यही राह थी,सैकड़ों कदम थे ऊँचे क्षितिज से सूर्य का आगमन था। यहीं विद्यालय, यहीं बालपन था छूटी हँसी का हरित उद्यान था, धूल में लिपटे कदम जो यहाँ थे वही खेत में, वही स्कूल में रहे थे। वनों की छाया,वनों की छवि हमारे सुरों में छाया हुआ मन, यहीं छूटी थी बालपन की निशानी यही गगन था,यही आसमान था। यहीं धरा का हरा आँचल था नदी के किनारे मेला लगा था, मन ने भाव यहीं पर किया था यहीं पानी था,यहीं जल मिला था। जीवन ने उदाहरण यहीं पर दिये थे सीधे वृक्षों पर यहीं चढ़े थे, कागज के जहाज यहीं उड़े थे जल प्रपात यहीं पर दिखे थे। अनन्त की यात्रा यहीं पर रूकी थी अनन्त की यात्रा फिर से चली थी, आना और जाना यहीं लगा था यही गगन था,यही आसमान था। *** *** महेश रौतेला
हम पर बन्दरों सी एक लम्बी पूँछ लगी है, जो अंग्रेजों ने १८३५ में हम पर अनिवार्य रूप से लगायी थी। हम खुश थे और खुश हैं उसे पाकर उछल कूद कर लेते हैं। कुछ में वह लुप्त है कुछ में गुप्त है, पूँछ अब मूँछ बन गयी है।
उदय होने के लिए भगवान हैं किसी किनारे बैठ लो भगवान हैं, कोई साथ अपना छोड़ दे एकान्त में भगवान हैं।
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