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महेश रौतेला

महेश रौतेला Matrubharti Verified

@maheshrautela
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कल फिर उदय होना
मनुष्य की तरह,
मैं देख सकूँ तुम्हें
वसन्त की तरह।

मन के छोर पकड़ते-पकड़ते
थका नहीं हूँ,
कुछ और दूरियां हैं शेष
अभी रुका नहीं हूँ।

फूल सुन्दर लगते हैं
देखना छोड़ा नहीं,
इस उदय-अस्त में
चलना रुका नहीं।

कल फिर दिखना
नक्षत्र की तरह,
मैं राह पर रहूँगा
राहगीर की तरह।

*** महेश रौतेला

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वे तो हुये दुखहर्ता
दुख लेकर क्यों आये!
वे तो ठहरे त्रिकालदर्शी
काल को क्यों छोड़ आये।


*** महेश रौतेला

इस ओर हमारी घर की बातें
उस ओर अमेरिकी धमकी है,
जब यहाँ वेद-ऋचायें थीं
उसका नाम नदारद था।

इस ओर हमारा भारत है
उस ओर नटखट बूढ़ा बालक है,
कुटिल दृष्टि से देख रहा
राक्षस बन वह बोल रहा है।

महाभारत-रामायण की रेखायें
हम खींचते जाते हैं,
दुष्ट यहाँ भी बहुत हुये
हम राक्षस हराना जानते हैं।

*** महेश रौतेला

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प्यार:

प्यार होने में बहुत समय नहीं लगता
वह प्राण की तरह आता
प्राण की तरह जाता,
जन्म की तरह प्रकट हो
एक उल्लास भर देता है।
वह पलभर में
क्षणभर में,
पेड़ की तरह खड़ा हो जाता है।
रक्त में बह
सांसों में आ-जा,
प्रकाश की गति से
अपना ब्रह्मांड बना लेता है।
वह पलभर में
क्षणभर में,
शान्त नदी सा बहता
अनन्त से मिल लेता है।
सुर से सुर मिला
स्वरों को समेटता,
दुनिया को थपथपाता
निराकार हो जाता है।
जब चले थे
अँगुलियों पर था,
जब लौटेंगे
आँसुओं पर होगा,
जीवनभर का रिश्ता
मौन में फँसा होगा।
***
*** महेश रौतेला

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राज्य-राज्य में राजनीति है
देश हमारा निर्मल है,
पग-पग पर दुष्ट खड़े हैं
राष्ट्र हमारा पावन है।

* महेश

हैरान हूँ,आवाक हूँ
सृष्टि की पहिचान हूँ,
हैरान हूँ, परेशान हूँ
इसलिए कविता में हूँ।

काँटों सा चुभता हूँ
इसलिए फूलों में हूँ,
इधर-उधर लुढ़कता हूँ
इसलिए पथ पर हूँ।

हैरान हूँ,समाचार हूँ
इस सतत विकास में हूँ,
मन से विचलित हूँ
इसलिए आन्दोलित हूँ।

इस भ्रष्टाचार में,
इस सदाचार में,
झूठ-सच से मिला
कलियुगी समाधान हूँ।

पहाड़ सा हूँ
अतः धरती पर हूँ,
टूटता-फूटता
पर सतत खड़ा हूँ।

*** महेश रौतेला

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जिस दिन चुक जाऊँगा
मौन हो जाऊँगा,
सत्य को पहिचान जाऊँगा।
खेत जोतूँगा
तभी अन्न उगेगा,
आग जलाऊँगा
तभी अन्न पकेगा।
सुख के लिये
एक दिया जला लूँगा,
कष्टों पर चुपचाप
पर्दा डाल,मौन रहूँगा।
झूठ को अन्त तक
पसरने नहीं दूँगा,
आखिर चुक जाने के बाद
फूलों में लिपट जाऊँगा।

+*** महेश रौतेला

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चौदह सितम्बर( हिन्दी के लिए):

पुष्प सी डाल पर लगी
खिली,सुवासित हूँ,
मैं भारत भूमि में
उगी-पली- सुरभित भारत की आवाज हूँ।

मैं राष्ट्र के लिए अमर
कण्ठ में बैठी,
होंठों पर लौटी
हिमालय से निकली हूँ।

चुनाव की वीणा हूँ
बजती सुरीली हूँ,
मैं लोकतंत्र में जीती हूँ
लोगों से बात करती हूँ।

लावण्य मेरा देख लो
शिशुकाल माँ सा पकड़ लो,
धूप सी मैं बिछी हूँ
श्रवण करके देख लो।

यह भी सच है-
मैं हिन्दी बोलता हूँ
पर अंग्रेजी लिखता हूँ,
मैं भारतवर्ष कहता हूँ
पर इंडिया लिखता हूँ।

*** महेश रौतेला

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यहीं पर थीं
मेरी आधी बातें,
यहीं पर थीं
मेरी आधी रातें।
यहीं पर थीं
सारी आधी राहें,
यहीं पर थीं
हमारी जीती- जागती
आधी मुलाकातें।
यहीं हुये थे
पूर्ण से अपूर्ण,
सत्य से असत्य
अहिंसक से हिंसक।

*** महेश रौतेला

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पृष्ठभूमि में नैनीताल:

1973 से 1977 का नैनीताल पृष्ठभूमि में जा चुका था। सोच ही रहा था-
"जीवन है
कहीं से निकल लेगा,
ठोकर लगेगी, गिरेगा
फिर उठ जायेगा।
उसका अन्त नहीं मिलेगा
गायेगा, नाचेगा
सुगंध बन उड़ जायेगा।
जीवन है
कभी भी, किसी तरह आ जायेगा
गुदगुदायेगा,गरमायेगा।
एक दूसरे के विरुद्ध हो
सकपकायेगा,
एक दूसरे के संग हो
मुस्करायेगा, हँसेगा,
फिर नींद के आगोश में आराम करेगा।
जो गाया गया
उसे दोहरायेगा,
नया रच नक्षत्र सा टिमटिमायेगा।
जीवन है
उसे भूख लगेगी,
श्रम से,परिश्रम से
आत्मा पूरी होगी।"
हल्द्वानी जाने वाली बस तब भी यहीं से जाती थी, अब भी,तल्लीताल से। बस को देखकर लगता है यदि क्षण रूके होते तो मैं ढेरसारी शुभकामनाएं देते हुये स्वयं को देखता रहता। वे संवेदनाएं जा चुकी थीं। दोस्त सभी जा चुके थे। नैनीताल निर्मम लग रहा है। सुन्दर शहर बिना काम के उजाड़ लग रहा है। वृक्ष अब भी छाया देते हैं लेकिन मन उचाट है। हालांकि सभी गतिविधियां अजस्र चल रही थीं। वही विद्यालय, वही स्नेह-प्यार, वही खेल, वही आवाजाही, वही सुख-दुख, वही रिश्ते,वही रास्ते, वही आसमान। मनुष्य ही मनुष्य को उपयोगी चहल-पहल देता है। मनुष्य का महत्व भी मनुष्य से है। डोटीयाल सामान ढोने में व्यस्त रहते हैं। भावताव लगा रहता है,सामन ढोने के लिए। जो डोटीयाल मेरा सामान अक्सर ले जाया करता था वह अब मुझे देख कर मुस्कराता है। एक दिन वह बोला," साहिब, आजकल क्या कर रहे हो?" मैंने कहा कुछ नहीं," बेरोजगार हूँ।" फिर बोला आपके दोस्त? मैंने कहा," सब उड़ गये।" मैं बस को देखता हूँ फिर डाकघर जाता हूँ। डाकिये से पूछता ,"कोई डाक है क्या?" वह नहीं में उत्तर देता। तब एक निराशा छा जाती और अगले दिन की आशा में समय बीतने लगता। राह जब गाँव से शहर आ जाती है तो लक्ष्य भी बदलने लगते हैं। मेरा दोस्त कहता था, वह पढ़ना ही नहीं चाहता था। उसने अपने माता-पिता से कहा था," मैं खेतीबाड़ी का काम करना चाहता हूँ। मेरी शादी कर दीजिये। हम दोनों सबकुछ सभाल लेंगे। लेकिन मेरी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया गया। गाँव के काम में बहुत परिश्रम करना पड़ता था। पैसे की तंगी रहती थी। इसलिए शायद मुझे आगे पढ़ने को कहा गया।"
मैं झील के किनारे खड़ा हूँ। "देखा,एक साँप एकाग्र होकर झील के जल को देख रहा है। वह मछली की तलाश में है। ज्योंही मछली उसके नजदीक आती है वह झट से अपना ग्रास बना लेता है। एक सुन्दर मछली,झील में हँसती-खेलती साँप के पेट में जा चुकी है। उसका दमघुट गया है।उसका जीवन साँप के जीवन में समाहित हो चुका है।"
उधर पाषाण देवी से एक व्यक्ति झील में कूद गया है। नाव वालों ने उसे बचा लिया है। जीवन का संघर्ष और उसका पलायन दिख रहा है।
देवदार वृक्षों की छाया लम्बी होकर राहों को ढक चुकी है। मुझे विगत एक स्वप्न सा आता है-
"मैंने सबसे पहले तुमसे ही पूछा
पाठ्यक्रम का विवरण
हवा की ठंडक
और तुमने पुष्टि की
मेरे इन सरल दिनों की ।
मैंने सबसे पहले तुममें ही खोजा
अपना पता
आने-जाने का रास्ता
सम्पूर्ण प्यार का अहसास
और तुमने लगायी मुहर
मेरे इन चलते वर्षों पर।"
मेरे लिए नीरस होते नैनीताल से मेरा यह कथन अभी भी सरस लग रहा है। वैसे शिकायत समय से है। बरसात समाप्त होकर ठंड आ चुकी है। गाँव के किस्से मन में घूमते-घूमते तुलना करने लगते हैं।एक ओर उच्च शिक्षा ग्रहण करती लड़कियां और दूसरी ओर गाँव की वे लड़कियां जो विद्यालय का मुँह भी नहीं देख पाती हैं। उनके हिस्से घर के काम आते हैं। उनकी चार लड़कियां हैं, जब मायके आती हैं तो मायके से ससुराल जाते, विदाई के समय पिता दीपक दूसरे घर चले जाता है इसलिए कि बेटियों के हाथ में कुछ रखना न पड़े। वह लगभग सौ साल जिया लेकिन उसका स्वभाव नहीं बदला। मनुष्य की संवेदनायें एक ओर शून्य होती हैं और दूसरी ओर गगन से भी ऊँची।
आकाश में नक्षत्र टिमटिमा रहे हैं। सृष्टि अपनी गति पकड़े हुये है। एक उदासी लिए मैं घुप अँधेरे में हूँ। एक दोस्त दिल्ली से आया है। हम भवाली रोड पर दूर तक घूमने गये हैं। धुँध नीचे से ऊपर की ओर आ रही है। फिर हमारे चारों ओर छा गयी है। लगा जैसे जीवन को परिभाषित कर रही हो। उसने कहा ,"वह मिली थी बैंक पी. ओ.परीक्षा में। तुम्हारे बारे में पूछ रही थी।" हम लौट रहे हैं अपने-अपने कदमों के सहारे। वह दूसरे दिन चला गया। मैं मेरे लिए निर्मम होते नैनीताल को महिनों देखता रहा हूँ। जो आकर्षक है, वह विरान लगने लगा है मुझे। रोजगार, कर्म जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। उनके होने से संवेदनायें अपने आप खिलने लगती हैं। झील ठंडी हो चुकी है। मेरा साक्षात्कार पत्र डाकिया मुझे दे रहा है। लगभग आधा फीट बर्फ गिर चुकी है। वृक्षों की टहनियां झुकी हुयी हैं। मैं उड़ान को तैयार हूँ

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