अक्स-ए-ख़ुशबू(१) हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो मुझ को न समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा (२)
उस तरह से न कभी टूट के बिखरे कोई
मैं तो उस दिन से हिरासाँ(३) हूँ कि जब हुक्म मिले
ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई
कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान हैं आए कोई
परवीन शाकिर
(१) खुशबू की परछाई
(२) टुकड़े टुकड़े
(३) नाउम्मीदन