भेदभाव जाति धर्म और इंसान
आलाप है विलाप है नही
कोई शैलाव है
उमंग की तरंग है
रंग है बेरंग है
मुश्किलो का संग है
उफान की लो में चल पड़ा
गुजरती आग में जल पड़ा
समुंदर की लहर ने
ठहराव ला रहा
बदलो की गडगड़ाहट ने
शोर ला रहा
वो दौर भी कितना बेरंग था
खून एक हो ,रंग एक हो
ना हो तो बस संग ना हो
पुराने वो
ख्याल में सम विषम होते चले
वो उलझनों के दौर में
गुजर बसर चल पड़ा
उम्मीद के संग में
उमंग के तरंग में
मुश्किलो के रंग में
निकल पड़ा ।।
संदीप दूरदर्शी