हरि हरि अमियाँ
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पूरा बगीचा जग चुका था
फूट रही थी सुबह के सूरज की
हल्की हल्की लाली
सोचा, तोड़ लू
आम के पेड़ से दो चार अमियाँ
मैं तो उन्हें भूल ही चुका था
पर मेरी जीभ में उसके स्वाद
की यादें अब भी हिलोरें ले रही थीं।
फिर चल दिया वहाँ से अकेला ही
सुपरिचित मेड़ों और पगडंडियों के साथ
रेल्बे लाईन को लाँघता-फलाँघता हुआ
पहुच गया गाँव के ऊंचे चबूतरे के पास
जहाँ खड़ा था एक लंबी घनी मूछ वाला
बूढ़ा बरगद का पुराना विशाल बटबृक्ष
कुछ देर उस पेड़ को मैं ध्यान से देखा
साहस कर झुकाई उसकी एक डाल।
बस, मैं। डाल तोड़ने को ही था
की अचानक मेरी दृष्टि वहाँ बैठे
सफेद बाल और झुर्रियों वाले एक
बूढ़े आदमी के ऊपर पड़ी
जो बरसों से यही डाल पर बैठा है
उसे देख हिय में अज़ब की पीड़ा हुई
तोड़ लाया था जो मैं बगीचे से अमियाँ
उसी के हाँथ में सब उड़ेल दी
पूरे रास्ते यह सोचता रहा कि अग़र
नही लाता वो आम की हरी हरी अमियाँ
तो उस बूढ़े आदमी का क्या होता?
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
24/12/2020