यादें
पत्थरों से घिरकर भी शांत चेहरे को ओढ़कर ,
आईने सी चमक बिखराती हो ।
ये तो बताओ कि धैर्य के थाल में संचित यह पूंजी
किस धरा से छीन कर ले आती हो ।
भावनाओं को यूं ही कोई , सहज कैसे दबा सकता है ,
अपने ही ह्र्दय को कोई कैसे बरगला सकता है ?
झील के गर्भ में भी लहरें अंगड़ाई लेती हैं ,
रुके हुए बादलों में भी बिजली की चमक दिखाई देती है ,
कठोर - ऊँचे पर्वतों पर भी व्रक्षो का झुरमुट रहता है ,
सीना उनका चीरकर ही जल , सरिता का बहता है ।
उतरती हैं किरणें जब पेड़ों की पत्तियों पर ,
नूर सूरज का जैसे चेहरे पर तेरे छा जाता है ।
देखा है किसने ढकी हुई चांदनी को बादलों के उस पार ,
मैंने तो अपनी अँधेरी रातों को तेरी यादों से सहलाते हुए बिताया है ।
सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
साहिबाबाद ।