उम्र भर ढूंढ़ते रहे उन्हें
जब मिले वो तों
बहाने बनने में लग गए
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उम्र भर ढूंढ़ते रहे उन्हें,
ख़्वाबों की भीड़ में, यादों के सन्नाटे में,
हर चेहरे में उनका अक्स तलाशते रहे,
हर राह को उनकी दस्तक का पता मानते रहे।
अंधेरों में जलती रही उम्मीद की लौ,
हर शाम को समझते रहे
शायद आज वही समय आएगा
जब उनींदी तक़दीर मुस्कुरा उठेगी।
नाम उनका होठों पर न आया,
पर धड़कनों में रोज़ लिखा गया,
हर दुआ का मतलब बदला
और हर मतलब में वही नाम रहा।
फिर एक दिन,
अचानक भीड़ हट गई,
और सामने वो थे
वैसे ही, जैसे कल्पनाओं में थे;
पर हमारी आँखों में
सदियों की थकान उतर आई थी।
हमने समझा था
मिलते ही समय थम जाएगा,
ख़ामोशी गीत बन जाएगी,
और अधूरे वाक्य पूरे हो जाएँगे।
पर जब मिले वो तो,
नज़रों ने नज़रें चुराईं,
हाथों ने हाथ ढूँढा नहीं,
और बातों ने बातों से मुँह मोड़ लिया।
हम ठहर गए
जैसे किसी पुराने मकान की देहरी पर
खड़ी यादें,
जो भीतर जाने से डरती हैं।
वो मुस्कुरा कर बोले,
“वक़्त बहुत बदल गया है,”
और हमने सिर हिलाकर मान लिया
मानो सच की ठोकर से
ज़िद की हड्डियाँ टूट गई हों।
फिर शुरू हुए बहाने
कभी मौसम का, कभी हालात का,
कभी ज़िम्मेदारियों की धूप का,
तो कभी मजबूरियों की छाँव का।
हम भी बहते गए,
उनके बहानों की नदी में,
और अपनी ही चाहत को
किनारे पर छोड़ आए।
कहना बहुत कुछ था
पर शब्द पाँवों में जंजीर बन गए,
और ख़ामोशी ने
पूरे शहर जितना शोर मचा दिया।
वो जाते रहे
और हम देखते रहे,
जैसे किसी मेले से लौटते हुए
छूट जाए अपना ही बचपन।
उस दिन समझ आया
कभी-कभी मिलना भी
बिछड़ने से बड़ा धोखा होता है,
और सच्चाई से ज्यादा
बहाने आरामदेह होते हैं।
आज भी किसी शाम,
अगर उनका ज़िक्र चल पड़े,
तो दिल कह उठता है
“हमने ढूँढ़ना पूरा किया,
पर अपनाना अधूरा रह गया।”
उम्र भर ढूंढ़ते रहे उन्हें,
और जब मिले वो तो
बहाने बनने में लग गए…
जैसे मिलना ग़लत था,
और बिछड़ना सही।
आर्यमौलिक-2003