उपयोग का युग — चेतना का पतन
वेदांत 2.0 — अज्ञात अज्ञानी©
Vedānta 2.0 © 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
आज मनुष्य की सभ्यता उपभोग की सभ्यता है।
जो चीज़ इस्तेमाल होती है, वह जीवन नहीं देती —
वह जीवन खा जाती है।
जो फेंकी जाती है, वही विष बन जाती है।
जो जलाई जाती है, वही हवा को ज़हर कर देती है।
जो दिखाई देती है, वही झूठी सुंदरता बन जाती है।
बुद्धि और आँख — दोनों ही बाहर की ओर उन्मुख हैं,
इसलिए वे भीतर की दिव्यता नहीं देख पाते।
जहाँ बीज गर्भ में पलता है,
जहाँ वृक्ष धरती के भीतर जड़ पकड़ता है —
वहीं जीवन का मूल है।
जो भीतर नहीं घटता, वह स्थायी नहीं होता।
सुख, प्रेम, शांति, आनंद — ये फल हैं भीतर के वृक्ष के।
पर मनुष्य अब बाहर की बगिया में दौड़ रहा है,
जहाँ फूल कृत्रिम हैं और खुशबू रासायनिक।
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अब जीवन नाटकघर के बाहर लगे चित्रों जैसा हो गया है।
भीतर फिल्म चल रही है, संगीत बज रहा है,
और लोग बाहर खड़े होकर पोस्टर से ही आनंदित हो रहे हैं।
यही “सभ्यता” है —
दिखावे की, तुलना की, प्रतिस्पर्धा की।
हर कोई दूसरे की रोशनी से अपनी परछाईं नाप रहा है।
और फिर कहता है — “मैं खुश हूँ।”
पर उसकी खुशी उधार की है,
दुख भी उधार का,
सफलता भी उधार की,
और ईश्वर भी उधार का।
जो खुद को दानी कहते हैं,
वे प्रसिद्धि की भीख माँगते हैं।
जो सेवा करते हैं,
वे नाम की पूजा मांगते हैं।
धार्मिकता अब आडंबर है —
कर्तव्य नहीं, प्रदर्शन है।
इसलिए असली गरीब वह नहीं जिसके पास धन नहीं,
बल्कि वह है जिसके भीतर कुछ नहीं।
और वही अब “विकसित” कहलाता है।
यह सारा दृश्य उलट गया है —
सत्य भीतर था, पर उसे झूठ ने बाहर कर दिया।
अब झूठ का राज्य है, और सत्य निर्वासित है।