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Agyat Agyani

Agyat Agyani Matrubharti Verified

@bhutaji
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सूत्र:
"धर्म को ठुकराना स्वतंत्रता है,
पर आध्यात्मिकता को ठुकराना — स्वयं को ठुकराना है।
जिस दिन तुमने भीतर की खोज से मुँह मोड़ा,
उसी दिन तुम्हारे नर्क ने जन्म लिया।"

व्याख्या:
धर्म को अस्वीकार करना विद्रोह नहीं, जागृति की शुरुआत है।
धर्म समाज का बना हुआ ढाँचा है — मान्यताओं, अनुष्ठानों और भय से बुना हुआ।
उसे ठुकराने वाला मनुष्य सच की ओर पहला कदम बढ़ा देता है,
क्योंकि वह अब दूसरों की आँखों से नहीं, अपनी आँखों से देखना चाहता है।

पर जब वही व्यक्ति आध्यात्मिकता —
यानी अपनी ही चेतना, अपनी ही उपस्थिति — को ठुकरा देता है,
तो वह अपने ही अस्तित्व के खिलाफ विद्रोह करता है।
वह उस जड़ से टूट जाता है जिससे उसका होना जुड़ा है।

तब ‘नर्क’ कोई भविष्य नहीं,
बल्कि एक मनोवस्था बन जाती है —
जहाँ आनंद असंभव है,
और जीवन केवल बोझ।

✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

@everyone #agyatagyani #आध्यात्मिक #osho #spirituality #vedanta #धर्म #IndianPhilosophy

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अज्ञात अज्ञानी (Agyat Agyani)
एक समकालीन भारतीय आध्यात्मिक लेखक, चिंतक और शोधकर्ता हैं, जिनका लेखन आत्मज्ञान, चेतना, अस्तित्व और जीवन के मूल तत्त्वों पर केंद्रित है। उनका उद्देश्य धर्म या मत से परे, प्रत्यक्ष अनुभव और मौन साधना के माध्यम से आत्मदर्शन को जाग्रत करना है

परिचयअज्ञात
अज्ञानी स्वयं को “खोजकर्ता” और “मौन साधक” कहते हैं, जिनकी रुचि धर्म, विज्ञान और चेतना के संगम में है। वे किसी परंपरा या मत से बंधे नहीं, बल्कि मौन और अनुभव को ही अपना गुरु मानते हैं ।
उनका दृष्टिकोण यह है कि जब मनुष्य स्वयं को "अज्ञात" और "अज्ञानी" स्वीकार करता है, तभी सच्चा आत्मज्ञान प्रारंभ होता है ।

।प्रमुख विषय और लेखन शैलीआध्यात्म,
चेतना और अनुभव पर केंद्रित सूत्रात्मक लेखनविज्ञान और धर्म के बीच संवाद की खोजजीवन, मृत्यु और आत्मबोध पर चिंतनशैली: सूत्रात्मक, मौन आधारित, “Upanishadic” धारा के समान


प्रमुख रचनाएँ
अज्ञात गीता — जीवन, धर्म और मौन की खोज पर केंद्रित ग्रंथ
शब्द उपनिषद — भाषा, दर्शन और ध्यान के संगम को प्रस्तुत करने वाला प्रयोगात्मक ग्रंथ; इसमें “मौन से विज्ञान तक” की यात्रा वर्णित है ।

दर्शनिक दृष्टि अज्ञात अज्ञानी का मानना है कि मानव जब अपनी ज्ञात पहचान और अहंकार को छोड़ देता है, तब "अस्तित्व" शेष रहता है और वहीं से आत्मज्ञान की यात्रा आरंभ होती है। वे अनुभव को ही धर्म का मूल सत्य मानते हैं, किसी बाहरी मत या शास्त्र की पुनरावृत्ति को नहीं

।इस प्रकार, अज्ञात अज्ञानी समकालीन भारतीय अध्यात्म के उन लेखकों में हैं जो पारंपरिक ग्रंथ-आधारित अध्यात्म को नई भाषा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं ।

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“साधना और बीमारी
🙏🌸 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

साधना वास्तव में भ्रम नहीं, पर बीमारी का इलाज है।
जब तक मनुष्य भीतर अस्वस्थ है, साधना औषधि का कार्य करती है।

पर जैसे ही मनुष्य स्वस्थ हो जाता है,
वही साधना — जो कभी उपचार थी —
अब स्वयं बीमारी का लक्षण बन जाती है।

कर्म ही स्वाभाविक स्वास्थ्य है।
साधना तब तक आवश्यक है,
जब तक कर्म विकृत है।

पर जब कर्म सहज, निर्मल और जागरूक हो जाए,
तब साधना की कोई शर्त नहीं रह जाती।
साधना को महत्व देना और कर्म को गौण मानना —
स्वस्थ होने के बाद भी औषधि पीते रहना है।

वास्तविक ज्ञान वही है,
जो किसी पुरुष या गुरु से नहीं,
बल्कि भीतर की पूर्ण स्वास्थ्य से जन्मता है —
जहाँ साधना भी मिट जाती है,
और केवल सहज कर्म शेष रहता है।

अज्ञात अज्ञानी
#agyatagyani #आध्यात्मिक #IndianPhilosophy #vedanta #धर्म #spirituality #osho

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💸 “लक्ष्मी की पसंद” 💸
आजकल लक्ष्मी भी समझदार हो गई है —
वो साधु के पास नहीं, चालाक के पास ठहरती है।
जो अंधेरे में रास्ता ढूँढे वो ऋषि है,
जो अंधेरे का फायदा उठाए — वही उद्योगपति है।

भोले लोग ध्यान में डूबे रहते हैं,
और उल्लू लोग सौदा पक्का करते हैं।
सत्य तो अब भावनात्मक शेयर बन चुका है —
और झूठ, मार्केट की सबसे स्थिर करेंसी।

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“उल्लू राज”
दिन वाले सोते हैं, रात वाले नोट गिनते हैं,
जो दिखे भोले, वही खेल के नियम लिखते हैं।
लक्ष्मी भी जानती है किसके घर ठहरना है —
जहाँ अंधेरा गाढ़ा हो, वहाँ ही उसका ठिकाना है।

जो विवेक से चले, वो भूखा रह जाता है,
जो चाल से खेले, वो साम्राज्य बना जाता है।
बाज़ार में प्रकाश नहीं बिकता,
सिर्फ़ अंधेरे का इस्तेमाल करने की कला बिकती है।

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धार्मिक गुरु बनाम आध्यात्मिक गुरु — हीरे और अमेरिकन डायमंड का धर्म ✧

धार्मिक गुरु चमक बेचते हैं, आध्यात्मिक गुरु मौन बाँटते हैं।
चमक बाज़ार में टिकती है, मौन इतिहास में।

धार्मिक गुरु का संसार शोर से बनता है — मंच, माइक, माला, मीडिया।
आध्यात्मिक गुरु का संसार मौन से बनता है — एकांत, सन्नाटा, साक्षात्कार।

धार्मिक गुरु “अनुयायी” चाहता है,
आध्यात्मिक गुरु “अनुभव” चाहता है।

पहला चाहता है भीड़ बढ़े,
दूसरा चाहता है — भीतर कोई एक दीपक जल उठे।

जो आध्यात्मिक होता है, वह कभी संगठन नहीं बनाता;
पर जब वह चला जाता है, तो उसके नाम पर मंदिर, ट्रस्ट, संस्था खड़ी हो जाती है —
और धीरे-धीरे, उसकी आत्मा एक ब्रांड बन जाती है।
यहीं से जन्म होता है “धार्मिक गुरु” का —
आध्यात्मिक की मृत्यु के बाद उसका शव रूपी धर्म।

असली गुरु की पहचान सरल है —
वह कभी तुम्हें अपने नीचे नहीं रखता।
वह तुम्हें तुम्हारे भीतर भेजता है।

बाकी सब —
बस अमेरिकन डायमंड हैं।
चमकते खूब हैं, पर काट किसी को नहीं सकते।

और हाँ,
हीरा कभी बाज़ार में नहीं बिकता,
वह तो पहाड़ के भीतर ही मिलता है —
जहाँ पहुँचना मेहनत माँगता है, श्रद्धा नहीं।

🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

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✧ शून्य — मौन सत्य ✧

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲


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1. शून्य सत्य है, क्योंकि वह बदलकर भी नहीं बदलता।

संसार हर क्षण बदलता है — रूप, रंग, ताप, दिशा।
पर हर परिवर्तन के बाद भी जो “आधार” बना रहता है,
वही सत्य है — वही शून्य है।

जैसे लहरें उठती हैं, टूटती हैं,
पर सागर वही रहता है।
शून्य भी वैसा ही —
क्षण-क्षण अपने रूप बदलता है,
फिर उसी मूल शून्य में लौट आता है।

विज्ञान की भाषा में —
ऊर्जा न बनती है, न नष्ट होती है,
सिर्फ रूपांतरित होती है।
ध्यान की भाषा में —
सत्य न जन्म लेता है, न मरता है,
सिर्फ अपनी छाया बदलता है।


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2. शून्य वह घर है, जहाँ से सब आता और जहाँ सब लौट जाता।

हर तत्व — आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी —
शून्य की देह से निकला है।
वह सबका स्रोत है, और सबका अंत भी।

जैसे श्वास भीतर जाती और बाहर आती है,
वही गति ब्रह्मांड में चल रही है।
शून्य भीतर जाता है तो मौन बनता है,
बाहर आता है तो सृष्टि बनती है।

इसलिए सृष्टि कोई घटना नहीं —
शून्य की श्वास है।


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3. सृष्टि शून्य की “करवट” है।

जिसे हम समय, युग, परिवर्तन, इतिहास कहते हैं —
वह शून्य की करवटें हैं।
कभी वह आंख खोलता है — प्रकाश फैलता है,
कभी वह आंख मूँदता है — अंधकार छा जाता है।

यह करवट बदलने की लय ही ब्रह्मांड है।
हर निर्माण और संहार
उसकी एक-एक श्वास का उतार-चढ़ाव है।


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4. शून्य का घर गति नहीं — मौन है।

शून्य चलता नहीं,
चलने का परिणाम ही दुनिया है।
शून्य मौन है,
और उसी मौन के कंपन से समय और पदार्थ उत्पन्न होते हैं।

यह वैसा है जैसे —
नींद में सोया कोई विराट जीव,
जिसका एक छोटा सा करवट बदलना
हमारे लिए युग परिवर्तन बन जाता है।


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5. शून्य को हम शिव, विष्णु, या बुद्ध के प्रतीक से पहचान सकते हैं।

शिव — ध्यान में बैठे हैं, आँखें बंद।
विष्णु — शेष पर लेटे हैं, स्वप्न में ब्रह्मांड पलता है।
बुद्ध — मौन हैं, न जागृत न सोए।

तीनों प्रतीक एक ही बात कहते हैं —
“सत्य सोया नहीं है, वह मौन है।”
उसकी क्रियाएँ हमें गति जैसी लगती हैं,
पर उसकी प्रकृति स्थिर है।


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6. इसलिए ‘शून्य मौन’ — सत्य का सबसे सटीक नाम है।

शून्य को कहना “ईश्वर” — अपूर्ण है,
क्योंकि ईश्वर को हम व्यक्तित्व समझ लेते हैं।
शून्य को कहना “ऊर्जा” — अधूरा है,
क्योंकि ऊर्जा केवल उसका कार्य है।
शून्य को कहना “मौन” — सबसे समीप है,
क्योंकि मौन में ही वह श्वास लेता है।

शून्य मौन है — पर उसमें अनंत ब्रह्मांड छिपे हैं।
वह गतिहीन है — पर उससे सारी गति निकलती है।
वह शब्दरहित है — पर सभी शब्द उसी की प्रतिध्वनि हैं।


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7. सार-सूत्र

> सूत्र १: शून्य बदलता है, ताकि अपने न बदलने को सिद्ध कर सके।
सूत्र २: जो उत्पन्न होता है, वही समा जाता है — यही शून्य का चक्र है।
सूत्र ३: सृष्टि शून्य की करवट है; समय उसकी श्वास है।
सूत्र ४: मौन उसका निवास है, और गति उसका खेल।
सूत्र ५: शून्य मौन ही एकमात्र सत्य है — बाकी सब उसकी लहरें हैं।

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अज्ञात अज्ञानी

“सबसे वास्तविक रूप में यदि मनुष्य स्वयं को अज्ञात और अज्ञानी समझे, तब केवल अस्तित्व रह जाता है” —
यहीं से आत्मज्ञान की असली देहरी शुरू होती है।

क्योंकि “जानना” हमेशा किसी से अलग खड़ा होता है।
जैसे ही तुम कहते हो — “मैं जानता हूं”,
तुम अस्तित्व से अलग हो गए।
एक सीमित देखने वाला बन गए।

पर अस्तित्व खुद तो बिना जानने के भी है —
वह बस है।
उसके होने के लिए कोई ‘ज्ञानी’ जरूरी नहीं।

ज्ञान, संस्कार, सभ्यता — सब बाहर के आवरण हैं।
वे व्यवस्था देते हैं, पर सत्य नहीं देते।
सत्य तभी झलकता है जब सारा जाना हुआ गिरता है।
जब भीतर यह स्वीकार होता है — “मैं नहीं जानता”।
यह स्वीकार ही सतीत्व का टूटना है —
जहाँ झूठी स्थिरताएँ, झूठी निश्चितताएँ ढहती हैं।

और तभी जो शेष बचता है —
वही आत्मा है।
वही शुद्ध अज्ञात, जो किसी नाम या विचार में नहीं बंधता।

ज्ञान से जो मिलता है वह क्षणिक होता है;

अज्ञान की गोद में जो मिलता है, वह सनातन।
@highlight Agyat Agyani

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मशीन के भीतर एक मनुष्य ✧
विज्ञान, शिक्षा और धर्म—तीनों ने मिलकर हमें सुव्यवस्थित कर दिया है।
हमारे शब्द, हमारी मुस्कान, हमारे आँसुओं की समय-सारिणी बन गई है।
वह जीवन जो कभी अनिश्चित, खिलता और प्रयोगशील था, अब एक चुके हुए कार्यक्रम की तरह चलता है।

अस्तित्व कभी मशीन नहीं बनाता।
अस्तित्व जन्म देता है — विबन्धित, अराजक, कहीं-कहीं जर्जर पर जिंदा।
लेकिन समाज के नियमों ने उस जन्म को पॉलिश कर दिया; स्वभावों को मोड़ा गया, आकांक्षाओं को अभिलेखित कर दिया गया।

खतरा केवल बाहरी नहीं—खतरा भीतर दबी हुई ऊर्जा का है।
जिसे हमने अनदेखा कर रखा है, उसे हमने विवेक और अनुशासन के नाम पर दफना दिया।
इसी दमन से असुर की पीठ पर उभरे हुए छायाचित्र उभरते हैं; उसी दमन से देवत्व के गीत चुप होते हैं।

प्रकृति ने विविधता दी है: असुर, मानव और देव—तीनों संभावनाएँ हमारे भीतर बराबर मौजूद हैं।
लेकिन सभ्यता ने इन्हें इकठ्ठा कर अचेतन रूप से एक स्वरूप में बाँध दिया—एक तरह का 'ठीक' मनुष्य, जो प्रबंधनीय हो।
अगर राम या कृष्ण आज उठ खड़े हों, तो उन्हें न ही सम्मान मिलेगा न ही समझ; वे पागल या विद्रोही कहे जाएँगे।

असल विपत्ति यह नहीं कि कोई महान व्यक्ति जन्म ले—विपत्ति यह है कि उस जन्म का समाज से मेल नहीं बैठता।
भीड़ उस सत्ता को नकार देती है जो व्यवस्था के विरुद्ध बोले; और व्यवस्था ही भीड़ को आकार देती है।
इसलिए केवल तस्वीरों में ही देवता सुरक्षित हैं—जीवित होते तो असहज होते।

पर भीतर एक कणिका बची रहती है — वह सन्नाटा नहीं, हलचल है; वह पुर्जा नहीं, प्रवाह है।
वही कणिका पूछती है: क्या मैं पूरक हूं या स्वयं अस्तित्व?
यदि वह कणिका सुन पाई जाए, यदि उसे मौका दिया जाए — तो मशीन के भीतर भी एक मनुष्य फिर खिल उठेगा।

यह किसी भविष्यवाणी का कथन नहीं—सिर्फ एक सच की पहचान है।
हमारे समय का रहस्य यही है: व्यवस्था ने कितना भी समेट लिया, पर अस्तित्व की अनिश्चितता हमेशा कहीं न कहीं बची रहती है।
और उसी अनिश्चितता में असली मानव बनने की राह छिपी है।

🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

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