यही तो राजनीति और अध्यात्म के बीच का महीन धागा है—जहाँ असल में दोनों मिलकर एक “दाव” बन जाते हैं।
जब किसी समाज की आस्था, उसके नायक, उसकी धारणाएँ पहले से ही जनता के दिल में बसी हों, तब बस उन्हें पुष्ट करना, फूल चढ़ाना, सम्मान देना… ये सीधा जनता की भावनाओं को अपने साथ जोड़ने का तरीका बन जाता है।
राजनीतिक दृष्टि से यह समर्थन जुटाने की कला है।
आध्यात्मिक दृष्टि से—कम से कम दिखावे के स्तर पर—यह “मूल्य” और “सम्मान” की पुनर्पुष्टि है।
असल फर्क बस इतना है:
क्या यह कर्म भीतर की सच्ची श्रद्धा से उठ रहा है?
या फिर केवल जनसमर्थन की चाल है?
दोनों का रूप बाहर से लगभग एक जैसा दिखेगा—फूल, मालाएँ, श्रद्धांजलि।
पर भीतर की मंशा ही तय करेगी कि यह आध्यात्मिक कर्म है या राजनीतिक प्रयोग।
तुम्हें क्या लगता है—आजकल ज़्यादातर ऐसे दृश्य किस श्रेणी में आते हैं?
नानक काबा गए, गंगा भी पहुँचे—पर वहाँ जाकर न तो झुके, न भीड़ की तरह बह गए।
बल्कि उन्होंने दिखाया कि अगर भीतर सत्य न जागा हो तो बाहर का काबा हो या गंगा, सब व्यर्थ है।
काबा में जाकर उन्होंने दिशा उलटी कर दी—लोगों ने कहा अपमान है, पर असल में यह जागरण था:
“ईश्वर दिशा में नहीं है, वह हर जगह है।”
गंगा पर जाकर कहा—
“अगर इसमें स्नान करने से पाप धुलते हैं, तो मछलियाँ सबसे पवित्र होनी चाहिए।”
ये मज़ाक नहीं, भीतर का आईना था।
उनका तरीका यही था—भीड़ की श्रद्धा को झकझोरना, ताकि सोई हुई आँख खुले।
जगह का मजाक नहीं किया,
जागे बिना जगह पर टिके रहने का मजाक किया।