1990–2005: बिहार का “अपराध युग” 🚔
दशकों तक बिहार ने गरीबी, बाढ़ और सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्ष किया है, लेकिन 1990 के दशक में इसने एक और अभिशाप का सामना किया: अपराध। यह वह समय था जब राज्य में कानून-व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई थी। इस दौर को "लालू-राज" (1990-1997: लालू प्रसाद; 1997-2005: राबड़ी देवी) के नाम से जाना जाता है, और यह तीन प्रमुख स्तंभों पर आधारित एक आपराधिक परिदृश्य को दर्शाता है: जातीय नरसंहार, अपहरण-उद्योग और बड़े आर्थिक अपराध।
जातीय नरसंहार: “किलिंग फील्ड्स” की भयानक गाथा 💔
बिहार में सामाजिक-आर्थिक ध्रुवीकरण बहुत गहरा था। भूमि विवाद, मजदूरी और जातीय वर्चस्व की लड़ाई अक्सर सामूहिक हत्याओं में बदल जाती थी। इस दौरान कई नरसंहारों ने राज्य को हिला दिया।
बारा (1992): एमसीसी (MCC) के दस्ते ने 40 ऊंची जाति के लोगों को बेरहमी से मार डाला। यह निजी मिलिशिया और वामपंथी उग्रवादी समूहों के बीच चल रहे खूनी संघर्ष की शुरुआत थी।
बथानी टोला (1996): रणवीर सेना (Ranvir Sena), एक निजी मिलिशिया समूह ने 21 दलितों, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, की हत्या कर दी।
लक्ष्मणपुर-बाथे (1997): यह राज्य के इतिहास का सबसे भयानक नरसंहार था, जिसमें रणवीर सेना ने 58 दलितों का कत्लेआम किया।
ये घटनाएं सिर्फ हिंसा की कहानी नहीं कहतीं, बल्कि कमजोर अभियोजन की भी पोल खोलती हैं। कई मामलों में, आरोपी सबूतों के अभाव में बरी हो गए, जिसने न्याय प्रणाली पर गंभीर सवाल खड़े किए।
अपहरण-उद्योग: रोज़ाना का धंधा 💰
1990 के दशक में, "फिरौती के लिए अपहरण" एक संगठित उद्योग बन गया था। 2001 और 2005 के बीच, राज्य में इस तरह के 1,778 मामले दर्ज किए गए, जिसका मतलब था कि औसतन लगभग एक अपहरण हर दिन होता था। व्यवसायी, डॉक्टर, सरकारी कर्मचारी और यहां तक कि बच्चे भी अपहरणकर्ताओं के निशाने पर थे।
इस “उद्योग” की सफलता का कारण राजनीतिक संरक्षण, गैंग नेटवर्क और पुलिस की अक्षमता थी। पुलिस की निष्क्रियता और अभियोजन की कमजोरी ने अपराधियों के हौसले बुलंद किए, जिससे यह एक सामान्य और लाभकारी व्यवसाय बन गया।
बड़े आर्थिक अपराध: चारा घोटाला 💸
चारा घोटाला एक ऐसा बड़ा वित्तीय अपराध था जिसने बिहार की राजनीति को हिला दिया। पशुपालन विभाग के माध्यम से सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की अवैध निकासी की गई। इस घोटाले में कई वरिष्ठ अधिकारी और राजनेता शामिल थे, जिनमें लालू प्रसाद भी शामिल थे। यह केस अपराध और राजनीति के बीच सांठगांठ का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बन गया।
इन घोटालों ने सरकारी प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर किया और यह दर्शाया कि कैसे राजनीतिक शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जा सकता है।
क्या था “जंगलराज” का सार? 🌳
"जंगलराज" शब्द का उपयोग अक्सर इस अवधि का वर्णन करने के लिए किया जाता है, और यह पूरी तरह से उचित है। यह सिर्फ हिंसा या अपराध की संख्या नहीं थी, बल्कि यह शासन की विफलता थी। राज्य अपने नागरिकों को सुरक्षा देने में बार-बार विफल रहा।
इस स्थिति के लिए जिम्मेदार प्रमुख कारक थे:
कमजोर कानून-व्यवस्था: पुलिस की संख्या कम थी, जांच की क्षमता खराब थी और गवाहों की सुरक्षा बिल्कुल भी नहीं थी।
अपराध-राजनीति का गठजोड़: कई राजनेताओं पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप था, जिससे न्याय मिलना असंभव हो गया था।
न्याय प्रणाली की विफलता: उच्च न्यायालयों में बार-बार दोषमुक्त होने से यह स्पष्ट हो गया था कि सबूतों को सही ढंग से प्रस्तुत नहीं किया जा रहा था।
बिहार में अपराध का यह दौर आज भी कई लोगों के दिमाग में एक गहरे जख्म की तरह है। पिछले दो दशकों में स्थिति में सुधार हुआ है, लेकिन 1990-2005 की भयावहता ने राज्य के सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने पर एक अमिट छाप छोड़ दी है।