"अधूरी नींदों वाला लड़का"
वो जो हँसता है भीड़ में,
अंदर से हर रोज़ थोड़ा और टूटता है।
जिसे सब मज़बूत समझते हैं,
असल में वो ही सबसे ज़्यादा रोता है।
सुबह उठकर वही चाय, वही सोच,
आज कुछ बदल जाएगा… शायद।
माँ की दवाई, बहन की फीस,
खुद के ख्वाबों को फिर पीछे छोड़ आया है।
वो लड़का अधूरी नींदों में भी
सपनों का हिसाब रखता है।
जो "ठीक हूँ" बोल देता है हर किसी को,
पर खुद से कह नहीं पाता कि वो ठीक नहीं है।
बचपन में पापा की डाँट झेल ली,
जवानी में दुनिया की बातें।
कंधों पर घर का भार लिए,
सपनों को तकिये के नीचे दबा आया है।
वो लड़का…
जिसने कभी किसी से कुछ नहीं माँगा,
बस वक़्त और समझदारी की तलाश में
हर रात खुद को समझाया है।
लेकिन क्या तुमने कभी पूछा?
उसकी आँखों के पीछे क्या जलता है?
वो जो सबसे ज़्यादा मुस्कुराता है,
असल में वही सबसे ज़्यादा अकेला रहता है।
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आखिरी पंक्तियाँ (उम्मीद के साथ):
पर एक दिन आएगा…
जब उसकी कहानी भी सुनी जाएगी,
वो लड़का भी एक दिन
खुद को गले लगा पाएगा।