English Quote in Questions by Ex Muslim Suhana

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★.. चैप्टर–04–जितना कठोर उतना श्रेष्ठ

मुसलमान अक्सर पूछते हैं: यदि मुहम्मद इतना बड़ा झूठा था तो उसने इस तरह का धर्म क्‍यों बनाया, जो इतने सारे बंधनों वाला और कठोर है ? वास्तव में इस्लाम उन कठोर धर्मों में से एक है, जिस पर अमल करना बेहद मुश्किल है। यह धर्म तमाम वर्जनाओं, कर्मकांडों और कर्तव्यों के साथ संताप देने वाला है। क्या भय दिखाकर और धमकी देकर बांधे रखने वाले धर्म को मानने में कठिनाई नहीं होती ?

आस्था का एक स्वयंसिद्ध आधारभूत सिद्धांत वह भी होता है, जिसमें विरोधाभास होता है। इसे कुछ इस तरह कहा जा सकता है: किसी सिद्धांत के अनुपालन में जितनी अधिक कठिनाई होगी, उतना ही उसमें स्वाभाविक आकर्षण होगा। यह हमारे मन की प्रवृत्ति है कि हम उन चीजों की प्रशंसा करते हैं, जिसे पाने के लिए अधिक यत्र करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें कि जो चीज हमें आसानी से या मुफ्त में मिल जाती है, उसका मोल हम कम आंकते हैं| संप्रदाय कष्ट की बड़ाई करते हैं और सरल जीवन का तिरस्कार करते हैं । यह असल में वह कष्ट ही है, जो इन्हें आकर्षक बनाता है।

सभी संप्रदायों की प्रकृति ऐसी होती है कि उनका अनुसरण करना कठिन होता है। द फंडामेंटलिस्ट चर्च ऑफ जीसस क्राइस्ट ऑफ लेटर डे सेंट्स, एफएलडीएस के रूप पहचाने जाने वाले मोर्मन पॉलीगैमिस्ट संप्रदाय के वारेन जेफ्स के अनुयायी उसके लिए मुफ्त में काम करते थे और अपनी सारी कमाई उसे सौंप देते थे। वह हर महीने दो मिलियन डालर से अधिक धन इकट्ठा कर लेता था, जबकि उसके अनुयायी जिंदा रहने के लिए दान पर निर्भर रहते थे। जेफ्स का अपने अनुयायियों पर अनन्य नियंत्रण था। उसने अनुयायियों के लिए टीवी देखने, रेडियो सुनने, अपने गानों के अलावा कोई और गाना सुनने आदि पर प्रतिबंध लगा रखा था।

उसने अनुयायियों को रहने के लिए घर दे रखे थे और कह रखा कि वे किसी गैरसंप्रदाय के व्यक्ति के साथ मेलजोल न बढ़ाएं। वह अनुयायियों के लिए पति या पत्नी चुनता था। यदि वह प्रसन्‍न नहीं होता था तो आदेश देता था कि अनुयायी अपनी पत्नी को छोड़ दे। उसके अनुयायी उसकी आज्ञा का पालन करते थे। संप्रदाय पूरा समर्पण और साथ ही बड़े त्याग की मांग करता है।

अन्य संप्रदायों जैसे जिम जोन्स, शॉको असहारा, द मूनीज या हैवेन्स गेट को देखें । इन संप्रदायों का अनुसरण करना सरल नहीं था। इन संप्रदायों के सदस्यों को अक्सर कहा जाता था कि वे अपने सारी धन-संपदा नेता को सौंप दें, अपने कामधाम, दोस्त-यार, रिश्तेदारों को छोड़ दें, ताकि संप्रदाय के नेता का अनुसरण कर सकें। इन संप्रदायों के अनुयायी कठोर जीवन जीने के लिए बाध्य किए जाते थे और कभी-कभी तो संभोग करने से परहेज करने को कहा जाता था। इस बीच, संप्रदाय का नेता वह सबकुछ करता था, जिसकी उसे इच्छा होती थी | डेविड कोरेश अपने अनुयायियों से कहता था कि महिलाएं ईश्वर से संबंधित होती हैं। चूंकि वह मसीहा है, इसलिए महिलाएं उससे संबंधित हैं | वह अनुयायियों को ब्रह्मचर्य का पालन करने का आदेश देता था, लेकिन उनकी पत्नियों और युवा बेटियों के साथ सोता था। शॉको असहारा, जिम जोन्स और सामान्यतः सभी संप्रदाय नेताओं ने अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले को कठोर सजाएं दी हैं। ऐसे दुर्व्यवहार और कठिनाई के बावजूद उन अनुयायियों के लिए सबसे सख्त सजा धर्म से बहिष्कृत किया जाना होती थी। इन संप्रदायों के कुछ लोग धर्म से बहिष्कृत किए जाने पर आत्महत्या कर लेते थे।

संप्रदाय के नेता उन अनुयायियों को समाज से बाहर निकाल देते थे, जो अनियंत्रित होते थे। लोग अपनी जड़ों के बिना जिंदा नहीं रह सकते | यदि व्यक्ति को समाज से बाहर निकाल दिया जाए तो अलग-थलग व अकेला पड़ जाएगा और अंत में हार मान लेगा। यही वह तरीका है, जिसके जरिए मुसलमान अपने बीच मौजूद गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर करते हैं ।

संप्रदाय त्याग की मांग करते हैं। त्याग के माध्यम से व्यक्ति को उस संप्रदाय में अपना विश्वास और निष्ठा साबित करनी होती है। संप्रदाय के अनुयायियों को यह विश्वास दिलाया जाता है कि वे अपना सब कुछ छोड़कर ही, यहां तक कि जीवन त्याग कर, ईश्वर की कृपा अथवा गुरु की प्राप्त कर सकते हैं। इसमें तर्क यह है कि किसी चीज के लिए जितना आप त्याग करेंगे, उतना ही उसको महत्व देंगे। जब आपकी मुक्ति दांव पर हो तो कोई भी त्याग कम होता है। मुहम्मद ने उनको जन्नत में शाश्वत जीवन, हूरों और 80 पुरुषों के बराबर यौन क्षमता का लालच दिया, जो उसमें भरोसा करते हों और उसके लिए कुर्बानी देने को तैयार हों। जब पुरस्कार इतना बड़ा हो तो उसे हासिल करने के लिए कुर्बानी भी उतनी ही बड़ी होनी चाहिए। अपने अनुयायियों को और अधिक कुर्बानी देने के लिए प्रोत्साहित करते हुए मुहम्मद ने कहा:

माजूर लोगों के सिवा जिहाद से मुंह छिपा के घर में बैठने वाले और अल्लाह की राह में अपनी जान व माल से जिहाद करने वाले हरगिज बराबर नहीं हो सकते। अल्लाह अपने जान व माल से जिहाद करने वालों को उनसे ऊंचा दर्जा देता है, जो घर बैठे रहते हैं। अल्लाह ने सब ईमान वालों के लिए अच्छे का वादा कर लिया है। लेकिन जो जिहाद करते हैं, लड़ते हैं, उनको अल्लाह ने खास इनाम के लिए उनसे अलग कर लिया है, जो घर में बैठे हैं। (कुरान. 4:95)

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यदि तुम अल्लाह और उसके रसूल में विश्वास करोगे तो इनाम मिलेगा, लेकिन वह इनाम उनको मिलने वाले इनाम के बराबर नहीं होगा, जो जिहाद छेड़ते हैं, अपनी जान और माल कुर्बान करते हैं और अल्लाह की राह में शहीद हो जाते हैं।

किसी संप्रदाय की आवश्यकताएं जितनी दुसाध्य होंगी, वह संप्रदाय उतना ही खतरनाक होगा। कुछ संप्रदाय आपको पूर्णकालिक सदस्य के रूप में तब तक नहीं स्वीकार करते हैं, जब तक कि आप बड़ी कुर्बानी देकर अपनी निष्ठा सिद्ध नहीं कर देते हैं | मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को यह भरोसा दिलाया कि ये कुर्बानियां आवश्यक हैं और मजहब का हिस्सा हैं | संप्रदाय के लिए खर्च करना अथवा अपनी सारी संपत्ति संप्रदाय के नेता को सौंप देना आपकी आस्था और प्रतिबद्धता का परिचायक माना जाता है | संप्रदाय के नेता मनोरोगी नार्सीसिस्ट और छलने में उस्ताद होते हैं। इन्हें यह देखकर अच्छा लगता है कि लोग उनके लिए श्रमसाध्य कार्य कर रहे हैं और वे इससे खुद की ताकत का अहसास करते हैं, अपने सर्वशक्तिमान होने का आनंद लेते हैं । इनकी नार्सीसिस्टिक भूख अपने अनुयायियों की गुलामी और त्याग देखकर शांत होती है । उनके अंधे अनुयायी कुछ भी करेंगे, यहां तक कि जंग छेड़ेंगे, हत्याएं करेंगे, अपनी जान दे देंगे ताकि नेता की दृष्टि में अच्छे सिद्ध हो सकें। नेता अथवा मालिक बनने की तृष्णा में जीने वाले नार्सीसिस्ट के प्रभुत्व और नियंत्रण के लिए अनुयायियों की गुलामी की मानसिकता खाद का काम करती है। ऐसे लोग ताकत का आनंद लेते हैं और उनके अनुयायी इस कठोरता को, अपने नेता के उद्देश्य को सत्य मानने की गलती कर बैठते हैं।

आखिर अधिकांश पैगम्बर पुरुष ही क्‍यों हुए ? ऐसा इसलिए है, क्योंकि नार्सीसिस्म प्रमुखतः पुरुषों में होने वाली मनोविकृति होती है। यद्यपि कि महिलाएं भी नार्सीसिस्ट हो सकती हैं, फिर भी महिलाओं से अधिक पुरुष नार्सीसिस्ट हैं| परिणाम स्वरूप महिलाओं की तुलना में पुरुष पैगम्बरों, संप्रदाय के नेताओं, तानाशाहों की संख्या अधिक है। संप्रदाय पारंपरिक रूप से कठोर धार्मिक नियम-कायदों को लागू करते हैं । अनुयायी जब पूरी बारीकी से इन नियम-कायदों का पालन करते हैं तो वे इस इस विश्वास की ओर बढ़ने लगते हैं कि उन्हें दुखों से मुक्ति मिल जाएगी। वे इन मजहबी क्रियाकलापों के प्रति इतने आसक्त हो जाते हैं कि सोचने लगते हैं, इन्हें नहीं किया गया तो पाप होगा। ऐसी मान्यता फैला दी जाती है कि अल्लाह को खुश करने अथवा ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन मूर्खतापूर्ण धार्मिक क्रियाकलापों का किया जाना अनिवार्य है। हालांकि इन मजहबी क्रियाकलापों (कर्मकांडों) का असली उद्देश्य अनुयायियों को फंसाए रखना और बांधे रखना होता है | वास्तविकता में इन मजहबी क्रियाकलापों का ईश्वर के साथ कोई संबंध नहीं होता है। ये नार्सीसिस्ट को अपने अनुयायियों के ऊपर अधिकाधिक नियंत्रण बनाने के लिए होते हैं ।

इस्लाम के मजहबी क्रियाकलाप अनिवार्य नमाज और रोजा विचारों और भावनाओं के प्रति असंवेदनशील बनाने का काम करते हैं । मुसलमानों को कुछ निश्चित खाद्य पदार्थों को खाने, संगीत सुनने और विपरीत लिंग से मेलजोल बढ़ाने से परहेज करने को कहा जाता है । यदि वह औरत है तो उसे चिलचिलाती धूप और गर्मी में भी बुर्के में रहना होता है, ढीला-ढाला कपड़ा पहनना होता है, गैर मुस्लिम परिवार व दोस्तों से संबंध खत्म करना होता है। ये कष्ट और त्याग अनुयायियों को विश्वास दिलाता है कि वे इनके बदले में अच्छा प्रतिफल पाएंगे। अनुयायी इन धार्मिक क्रियाकलापों और त्याग के प्रति जुनूनी हो जाता है। जब वह कष्ट सहता है तो सोचता है कि दूसरी दुनिया में अपने लिए ईश्वर की कृपा और इनाम इकट्ठा कर रहा है और इस तरह वह उल्लासोन्माद व आनंद से भर जाता है। विडम्बना यह है कि अनुयायी जितना अधिक कष्ट सहता है, उतना ही आनंद व संतोष का अनुभव करता है।

किसी संप्रदाय में विश्वास करने वाले लोगों द्वारा ई श्वर की कृपा प्राप्त करने के लिए स्वेच्छा से अपने शरीर को पीड़ा पहुंचाना असामान्य बात नहीं है । “कष्ट के बिना फल नहीं मिलता ' की कहावत पर विश्वास करना हम मनुष्यों की प्रवृत्ति है। प्राचीन काल में हमारे पुरखे ई श्वर को प्रसन्‍न करने के लिए त्याग किया करते थे। बड़ा प्रतिफल प्राप्त करने के लिए वे बड़ा बलिदान देते थे | कुछ संस्कृतियों में विश्वास इतना गहरा था कि वे लोगों और अपने बच्चों तक की बलि दे देते थे। इस्लाम (साथ ही अन्य संप्रदायों) पर अमल करने में आने वाली कठिनाई और आज्ञाकारी व धर्मात्मा बने रहने के लिए मुसलमानों को बडी कुर्बानी देने का हुक्म इस्लाम की मुख्य अपील है । संप्रदाय पर अमल करना जितना कठिन होगा, यह उतना ही सत्य प्रतीत होगा। जो कुर्बानी नहीं देते हैं, वे अपराधबोध से ग्रस्त होते है। अक्सर कुर्बानी देने पर जो तकलीफ होती, उससे कहीं अधिक कष्ट कुर्बानी नहीं देने के अपराधबोध पर होने लग

English Questions by Ex Muslim Suhana : 111987522
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