कैलेंडर पर
उँगली रखते ही
यह बोध हुआ..
समय स्पर्श से
न रुकता है,
न लौटता है
मास दर मास
जीवन बहता रहा,
हम चलते रहे
पर ठहरकर
स्वयं को
न परखा
जो अभिलाषाएँ थीं
वे प्रतीक्षा में
क्षीण होती गईं,
और जो विवशताएँ थीं
वे स्वभाव बन गईं
चेहरा वही रहा,
पर अनुभवों ने
मौन हस्ताक्षर
उस पर अंकित कर दिए
अंततः
न कोई उद्घोष,
न कोई विदाई
एक वर्ष
निःशब्द
जीवन से
विलीन हो गया
~रिंकी सिंह ✍️
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