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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*भारत, स्वर्ग, दिनेश, विश्वशांति, पहरेदार*

जयति-जयति जय भारती, स्वर्ग धरा यह देश।
विश्व गुरू *भारत* सुखद, विश्व शांति परिवेश।।

जन्म-भूमि ही स्वर्ग-सम, भारत भूमि महान।
राम कृष्ण गौतम यहाँ, शिव का नित वरदान।।

प्रात काल में ऊगते, ज्योतिर्वान *दिनेश*।
धरा प्रफुल्लित हो उठी, पहन कर्म-गणवेश।।

*विश्वशांति* का पक्षधर, रहा सदा यह देश।
शांति दूत हनुमत बने, धरा कृष्ण ने वेश।।

उत्तर में हिमराज हैं, सच्चा *पहरेदार*।
ड्रैगन खड़ा दहाड़ता, नहीं लाँघता द्वार।।

मनोज कुमार शुक्ल "मनोज"

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*परिवार,माया,तस्वीर,अतीत,कविता,जवान*

हँसी-खुशी *परिवार* की, आनंदित तस्वीर।
सुख-दुख में सब साथ हैं, धीर-वीर गंभीर।।

*माया* जोड़ी उम्रभर, फिर भी रहे उदास।
नहीं काम में आ सकी, व्यर्थ लगाई आस।।

टाँग रखी दीवार पर, मात पिता *तस्वीर*।
जिंदा रहते कोसते, उनकी यह तकदीर।।

यादें करें *अतीत* की, बैठे सभी बुजुर्ग।
सुदृढ़ था परिवार तब, बचा तभी था दुर्ग।।

*कविता* साथी है बनी, चौथेपन में आज।
साथ निभाती प्रियतमा, पहनाया सरताज।।

तन-मन आज *जवान* है, नहीं गए दरगाह।
उम्र पचासी की हुई, देख करें सब वाह।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*जगत,मंच,कठपुतली,जीवन,खिलौना*

रहा *जगत* में सत्य ही, हुआ झूठ का अंत।
वेद पुराणों में लिखा, कहते ऋषि मुनि संत।।

जीवन अद्भुत *मंच* है, भिन्न-भिन्न हैं पात्र।
अभिनय अपना कर रहे, बने सभी हैं छात्र।।

*कठपुतली* मानव हुआ, डोर ईश के हाथ।
कब रूठे सँग छोड़ दे, यह नश्वर तन साथ।।

*जीवन* तक ही साथ है, बँधी स्वाँस की डोर।
जितना जीभर जी सको, होती नित है भोर।।

मन बहलाने के लिए, दिया *खिलौना* साथ।
टूटे फिर हम रो दिए, बैठ पकड़ कर माथ।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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हरे तमस दीपावली, *आलोकित* घर-द्वार।
सुख-वैभव सबको मिले, हटें दुखों के भार।।

पाँच सदी पश्चात यह, आनंदित त्यौहार।
सजी अयोध्या आज फिर, बिखरा है *उजियार*।।

सुख-*समृद्धि* की आस में, करता मानव कर्म।
दुखियों के हर कष्ट को, हरता अपना धर्म।।

चारों दिशा *प्रदीप्त* हैं, खुशियाँ अपरंपार।
दीप-पर्व रोशन हुआ, झूम उठा संसार।।

*ज्योतिर्मय* साकेत-पुर, छटी अमा की रात।
राम-भरत का प्रिय मिलन, भातृ-प्रेम सौगात।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*प्रत्याशा, प्रत्यूषा, प्रथमेश, प्राकट्य, प्रहर्ष*

*प्रत्याशा* हर राष्ट्र से, हों मानव-हित काम।
हिंसा को त्यागें सभी, बढ़े देश का नाम।।

नव *प्रत्यूषा* की किरण, बिखरी भारत देश।
जागृति का स्वर गूँजता, बदल रहा परिवेश।।

करूँ *प्रथमेश* वंदना,गौरी तनय गणेश।
मंगलमय की कामना, कारज-सिद्धि प्रवेश।।

रामचंद्र *प्राकट्य* हुए, पुण्य धरा साकेत।
रघुवंशी दशरथ-तनय, राम राज्य के हेत।।

विकसित भारत बढ़ रहा, सबका है उत्कर्ष।
दिल आनंदित हो उठा, होता भव्य *प्रहर्ष*।।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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पुणे शहर की यह धरा......

पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।
किला सिंहगढ़ का यहाँ, छाई-शिवा तरंग।।

हरियाली चहुँ ओर है, ऊँचे शिखर पहाड़।
मौसम की अठखेलियाँ, मातृ-भूमि से लाड़।।

भीमाशंकर है यहाँ, अष्ट विनायक सिद्ध।
दगड़ू सेठ गणेश जी, मंदिर बहुत प्रसिद्ध।।

महाबलेश्वर की छटा, फिल्म जगत की जान।
शिव मंदिर प्राचीन यह, हरित प्रकृति की शान।।

छत्रपति महाराज की, धरा रही यह खास।
जन्म भूमि शिवनेरि की, नगरी आई रास।।

मराठा साम्राज्य का, केन्द्र बिंदु यह खास।
मुगलों के हर आक्रमण, प्रतिउत्तर आभास।।

छल-छद्मों को मार कर, जीते थे हर युद्ध।
गले लगाया प्रजा को, बनकर गौतम बुद्ध।।

मुगलों का हो आक्रमण, अंग्रेजों से युद्ध।
पुणे-मराठा अग्रणी, यश-अर्जन सुप्रसिद्ध।।

पेशवाइ साम्राज्य का, प्रमुख रहा यह केंद्र।
स्वाभिमान स्वातंत्र्य की, ज्योति जली रमणेंद्र।।

विदेशों से कम नहीं, पूना का परिवेश।
ऊँची बनीं इमारतें, देतीं शुभ संदेश ।।

शिक्षा का यह केंद्रबिंदु, रोजगार भरपूर।
शांत सौम्य वातावरण, दर्शनीय हैं टूर।।

आई टी का हब बना, विश्व में चर्चित नाम।
देश विदेशी कंपनियाँ, करें रात-दिन काम।।

बैंगलोर मुंबई नगर, प्रसिद्ध हैदराबाद।
पुणे शहर की शान को, सब देते हैं दाद।।

भारत का छठवाँ शहर, बना हुआ अनमोल।
शहर बड़ा यह काम का,सभ्य सुसंस्कृति बोल।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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कुछ तो सदा बवाल करेंगे......

कुछ तो सदा बवाल करेंगे।
अपना घर कंगाल करेंगे।।

जनता तो होती है भोली।
भ्रम फैला सिर लाल करेंगे।

संविधान-खतरे में है अब।
कुछ विरोध हड़ताल करेंगे।

कर्मयोग जिसने अपनाया।
देश-विदेश कमाल करेंगे।

सद्कर्मों की बना तिजोरी।
हिल-मिलकर खुशहाल करेंगे।

राष्ट्रभक्त का एक स्वप्न है।
भारत-मालामाल करेंगे।

जिसने तोड़ी नल की टोंटी
अब इसकी पड़ताल करेंगे।*

खड़ा हिमालय फिर मुस्काया।
उन्नत-भारत-भाल करेंगे।

मनोज कुमार शुक्ल "मनोज"

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*जीवंत, सरोजिनी, पहचान, अपनत्व, अथाह।

सुख-दुख में हँस मुख रहें,जीना है *जीवंत*।
कर्म सुधा का पान कर, अमर बनें श्रीमंत।।

मन *सरोजिनी* सा खिले, दिखे रूप लावण्य।
मोहक छवि अंतस बसे, प्रेमालय का पुण्य।।

सतकर्मों से ही बनें ,मानव की *पहचान*।
दुष्कर्मों के भाव से, रावण होता जान।।

जीवन में *अपनत्व* का, जिंदा रखिए भाव।
प्रियतम के दिल में बसें, डूबे कभी न नाव।।

प्रेम सिंधु में डूब कर, नैया लगती पार।
दुख-*अथाह*, जीवन-खरा, प्रभु का कर आभार।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*सत्य,अहिंसा,सत्याग्रह,सादगी,शांति*

जीवन का चिर- *सत्य* यह, करना सबको कर्म।
जन्म लिया तो मृत्यु भी, समझें इसका मर्म।।

*अहिंसा* सत्याग्रह है, गांधी का प्रिय मंत्र।
डिगा सका न पथ उन्हें, ब्रिटिश हुकूमत तंत्र।।

*सत्याग्रह* की भूमिका, कोसों हिंसा दूर।
नहीं रक्त रंजित रहा, शांतिपूर्ण भरपूर।।

गांधी जी की *सादगी*, उतरी दिल के पार।
एक लँगोटी ने किया, जनमत को तैयार।।

समय-समय पर खोजता, हर युग अपनी राह।
सुखद *शांति* की कल्पना, हर मानव की चाह।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*छंद,छप्पर,कुशल-क्षेम,मौसम,प्रस्ताव

मुक्त *छंद* के काव्य में, सुर- संगीत-अभाव।
दिल को छूता छंद है,स्वर-सरिता की नाव।।

सब को *छप्पर* चाहिए, जहाँ करें विश्राम।
श्रम की दौलत से सजे, दरवाजे पर नाम।।

मानवता कहती यही, होगी युग में भोर।
मुलाकात होती रहे, *कुशल-क्षेम* पर जोर।।

*मौसम* करवट ले रहा, धूप कहीं बरसात।
जहाँ न वर्षा थी कभी, बरसे अब दिन रात।।

संकट के बादल बढ़े, छिड़ा हुआ है युद्ध।
भारत का *प्रस्ताव* यह, अब तो पूजो बुद्ध।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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