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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
(61)

बेलन से रोटी बने, सदियों का औजार।
भूखे को भोजन मिले, किया बड़ा उपकार।।

तन-निरोग मट्ठा करे, पिएँ सदा ही रोज।
नित प्रातः ही घूमिए, जी भर खाएँ भोज।।

वर्षा ऋतु में ऊगती, हरियाली जब घास।
प्रकृति बिखेरे हरितिमा, स्वागत करती खास।।

सत्ता की रबड़ी चखें, नेतागण बैचेन।
जनता स्वप्नों में जिए, तरसें उसके नैन।।

जिसके हाथों लग गई, मिलती नहीं बटेर।
किस्मत उसकी खुल गई, कभी न लगती देर।।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*बेलन, मट्ठा, घास, रबड़ी, बटेर*

बेलन से रोटी बने, सदियों का औजार।
भूखे को भोजन मिले, रहा बड़ा उपकार।।

तन-निरोग मट्ठा करे, पिएँ सदा ही रोज।
नित प्रातः ही घूमिए, जी भर खाएँ भोज।।

वर्षा ऋतु में ऊगती, हरियाली जब घास।
प्रकृति बिखेरे हरितिमा, स्वागत करती खास।।

सत्ता की रबड़ी चखें, नेतागण बैचेन।
जनता स्वप्नों में जिए, तरसें उसके नैन।।

जिसके हाथों लग गई, मिलती नहीं बटेर।
किस्मत उसकी खुल गई, कभी न लगती देर।।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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सजल
समांत-अल
पदांत - फिर याद तेरी आ गई।।
मात्रा भार - 12+14=26

हो गईं आँखें सजल.....

हो गईं आँखें सजल, फिर याद तेरी आ गई।
दिल हुआ रोकर विह्वल, फिर याद तेरी आ गई।।

दिन गुजारे थे कभी, दर्द की परछाइयों में।
लौट आए सुखद पल, फिर याद तेरी आ गई।।

अब अकेला हो गया, काटता अंगना मेरा।
पी रहे कबसे-गरल, फिर याद तेरी आ गई।।

भूल क्या मुझसे हुई, कुछ भी समझ आता नहीं।
प्रीति कर जाती विकल, फिर याद तेरी आ गई।।

श्रम-पसीने को बहा, हमने सजाया स्वप्न-घर।
किंतु जाना था अटल, फिर याद तेरी आ गई।।

बेटियों को ब्याह कर, लाते रहे हैं आज तक।
यह कहावत है विफल, फिर याद तेरी आ गई।।

कुछ उड़े आकाश में, जब अग्नि का गोला बने।
खो गए स्वप्न रसातल, फिर याद तेरी आ गई।।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज
13/6/25

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*झरना, मधुकर, वंशिका, आँसू, कुटीर*

आँखों से झरना बहा, दिल में उठा गुबार।
पहलगाम को चाहिए, अब केवल प्रतिकार।।

मधुकर उड़ता बाग में, गाता है मृदु गान।
आमंत्रित करती कली, दे कर मधु मुस्कान।।

प्रेम-वंशिका बज रही, कृष्ण राधिका धाम।
मुदित गोपिका नाचती, बसे यहाँ घन-श्याम।।

बहते आँसू रुक गए, नाम दिया सिंदूर।
आतंकी गढ़ ध्वस्त कर,शरणागत-मजबूर।।

जनसंख्या की वृद्धि जब, हों कुटीर उद्योग।
अर्थ-व्यवस्था दृढ़ रहे, मिले सभी को भोग।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*नौतपा, लूक, ज्वाला, धरा, ताप*

धरा *नौतपा* में तपे, सूखे नद-तालाब।
मानव व्याकुल हो रहे,पशु पक्षी बेताब।।

तपी दुपहरी *लूक*-सी, कठिन हुआ है काम।
जीव जगत अब भज रहा, इन्द्र देव का नाम।।

राष्ट्रप्रेम-*ज्वाला* उठी, चला सैन्य-सिंदूर।
पाकिस्तानी जड़ों में, मठा-डाल भरपूर।।

*धरा* हमारी राम की, कृष्ण-बुद्ध की राह।
बुरी नजर यदि उठ गई, लग जाएगी आह।।

बँटवारे के *ताप* को , भोग रहा था देश।
भारत के चाणक्य अब, बदल रहे परिवेश।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*जल, नदी, तालाब, तृषित, मानसून*

*जल* बिन जीवन शून्य है, इन्द्र देव जी धन्य।
जीव जगत है चाहता, हम सब हों चैतन्य।।।

*नदी* व्यथित है प्यास से, पोखर हुए उदास।
जीव-जंतु-निर्जीव की, सुखद टूटती आस ।।

पूर दिए *तालाब* सब, उस पर बने मकान।
भूजल का स्तर गिरा, सभी लोग हैरान।।

*तृषित* व्यथित मौसम हुआ, आग उगलता व्योम।
दिनकर आँख तरेरता, मन को भाता सोम।।

दस्तक सुनकर खुश हुये, दौड़े स्वागत द्वार।
*मानसून* है आ रहा, पहनाओ सब हार।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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गुनिया धन है पा गया, बुधिया रहा गरीब।
शिक्षा का मतलब सही, पाएँ बड़ा नसीब।।

मंजिल रहती सामने, चलने भर की देर।
बैठ गया थक-हार कर, पहुँचा वही अबेर।।

भटक रहा मानव बड़ा, ज्ञानी मन मुस्काय।
ईश्वर का तू ध्यान कर, फिर आगे बढ़ जाय।।

दगाबाज फितरत रहे, मत करिए विश्वास।
सावधान उससे रहें, जब तक चलती श्वास।।

उलझन बढ़ती जा रही, सुलझाएगा कौन।
जिनको हम अपना कहें, क्यों हो जाते मौन।।

उमर गुजरती जा रही, व्यर्थ करे है सोच ।
चलो गुजारें शेष अब, हट जाएगी मोच।।

जितना तुझसे बन सके, करता जा शुभ काम।
ऊपर वाला लिख रहा, पाप पुण्य अविराम।।

सुप्त ऊर्जा खिल उठे, जाग्रत रखो विवेक।।
सही दिशा में बढ़ चलो, राह मिलेगी नेक।।

मन-संतोष न पा सका, बैठा पैर पसार।
लालच में उलझा रहा, मिला सदा बस खार।।

उठो सबेरे घूमने, रोग न फटके पास।
स्वस्थ रहेंगी इन्द्रियाँ, मन मत रखो उदास।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*अहिंसा, निर्वाण, सिद्धार्थ, तथागत, बुद्ध*

सत्य *अहिंसा* मार्ग पर, मिलें पुष्प के हार।
सामाजिक परिवेश में, जीवन है गुलजार।।

सुखद कर्म की नींव पर, करें भव्य निर्माण।
हों प्रसिद्ध इतिहास में, अमर रहे *निर्वाण*।।

राजपाट को त्याग कर, बोधिसत्व पर ध्यान।
पूज्य हुए *सिद्धार्थ* जी, सच्चा उपजा ज्ञान।।

*तथागत* के संदेश से, भटकें हैं कुछ देश।
लोभ-लालसा में फँसे, बढ़ा रहे हैं क्लेश।।

शक्ति-मार्ग से आ रहा, प्रेम-शांति संदेश।
*बुद्ध*-युद्ध के द्वंद्व में, हँसता है परिवेश।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*श्रम, नासूर, आतंकी,श्रमिक, मजदूर, पसीना, रोटी*

सेना की *श्रम* साधना, अब लाई है रंग।
ऐसा मारा रह गया, पाकिस्तानी दंग।।

पहलगाम के घाव ने, दिया उसे *नासूर*।
कभी भुला न पाएगा, देखे दुनिया घूर।।

सेना ने बदला लिया, *आतंकी* हैरान।
नहीं सुरक्षा कवच अब, बदला हिंदुस्तान।।

मानव बनता *श्रमिक* है, श्रम साधन ही साध्य।
कर्म करें मिलकर सभी, यही जगत आराध्य।।

अपने-अपने क्षेत्र में, हम सब हैं *मजदूर*।
श्रम की होती साधना, देश बने मशहूर।।

बहा *पसीना* श्रमिक का, भारत है खुशहाल।
अर्थ व्यवस्था पाँचवीं, बनी हमारी ढाल।।

*रोटी* से हर पेट का, रिश्ता बड़ा अजीब।
चाहे साहूकार हो, या हो निरा-गरीब।।

मनोज कुमार शुक्ल "मनोज"

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दोहाश्रित सजल

आतंकी को पालता, सनकी पाकिस्तान......

आतंकी को पालता, सनकी पाकिस्तान।
दानव का वंशज बना, बनी बुरी-पहचान।।

प्रबल शत्रु यह शांती का, जग में है बदनाम।
निर्दोषों को मारता, पैशाचिक मुस्कान।।

कट्टरता की कोख से, जिन्ना का अवतार।
मानवता पर चोट कर, नित करता अभिमान।।

गधे भरे हैं पाक में, बस मुल्ला की सोच।
लिए कटोरा माँगता, चला रखा अभियान।।

सहने का साहस गया, आया अब भूचाल।
पहलगाम के घाव से, आहत हर इंसान।।

निज फौजी अभियान को, दिया नाम सिंदूर।
पहले वाला अब नहीं, नूतन हिंदुस्तान।।

नदियों का जल रोक कर, दिया कड़ा संदेश।
भारत का यह फैसला, आफत में अब जान।।

भारत ने अब प्रण लिया, छोड़ पड़ोसी धर्म।
लातों के इस भूत का, होगा पूर्ण निदान।।

मनोजकुमार शुक्ल "मनोज"
6/5/25

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