Quotes by Manoj kumar shukla in Bitesapp read free

Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
(57)

प्रिये हुआ मन *अनमना*, चली गई तुम छोड़।
सूना-सूना घर लगे, अजब लगा यह मोड़।।

*अकथ* परिश्रम कर रहे, मोदी जी श्री मान।
पार चार सौ चाहते, माँगा था वरदान।।

गिरे हमारे *आचरण*, का हो अब प्रतिरोध।
सभी प्रगति के पथ बढ़ें, यही हमारा शोध।।

दिखतीं न *अमराईयाँ*, कटे हमारे पेड़।
कहाँ गईं हरियालियाँ, चाट गईं हैं भेड़।।

अधिक नहीं *अनुपात* में, हो भोजन का लक्ष्य।
अनुशासित जीवन जिएँ, यही हमारा कथ्य।।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*
🙏🙏🙏🙏

Read More

*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*सिकंदर,मतलबी,किल्लत,सद्ग्रंथ,राजनीति*

बना *सिकंदर* है वही, जिसने किया प्रयास।
कुआँ किनारे बैठकर, किसकी बुझती प्यास।।

अखबारों में छप रहे, बहुत *मतलबी* लोग।
कर्म साधना में जुटे, पाते मक्खन भोग।।

उत्पादक उपभोक्ता, बीचों बीच दलाल।
*किल्लत* कर बाजार में, कमा रहा हैं माल।।

बहुत पढ़े *सद्ग्रंथ* हैं, पर हैं कोसों दूर।
प्रवचन में ही दीखते, खुद को माने शूर।।

दोंदा बड़ा लबार का, *राजनीति* में योग।
भक्त बने बगुला सभी, लुका-छिपी का भोग।।

मनोजकुमार शुक्ल "मनोज "
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Read More

गौरैया कहती सुनो....

गौरैया कहती सुनो, चलो चलें फिर गाँव।
कांक्रीट के शहर में, नहीं मिले अब छाँव।।

रवि है आँख दिखा रहा, बढ़ा रहा है ताप।
ग्रीष्म काल का नवतपा, रहा धरा को नाप।।

कंठ प्यास से सूखते, तन-मन है बैचेन ।
दूर घरोंदे में छिपे, बाट जोहते नैन।।

ठूँठों से है आजकल, जंगल की पहचान।
मानव ने खुद कर दिया, काट उन्हें बेजान।।

सभी घोंसले मिट गए, ढूँढ़ रहे पहचान।
दाना पानी अब नहीं, हम पंछी हैरान।।

झील ताल पोखर पुरे, उनमें बनें मकान।
हम पक्षी दर-दर फिरें,खुला हुआ मैदान।।

सूरज के उत्ताप से, सूखे नद-तालाब।
आकुल -व्याकुल कूप हैं, हालत हुई खराब।।

मौसम में आते रहे, परदेशी कुछ मित्र।
बदले पर्यावरण से, बदल गए वे चित्र।।

घर को नीरस कर रहे, खुद जाते परदेश।
पर्यटक रूठा देश से, बदला है परिवेश।।

चलो सखी हम चोंच में, लेकर उड़ते बीज।
गिरि कानन अरु गाँव में, पूजें आखातीज।।

मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "

Read More

ग्रीष्म ऋतु के दोहे....

सूरज आँख दिखा रहा, सूखे नद तालाब।
व्याकुल कुँआ निहारता, हालत हुई खराब।।

सूरज की गर्मी बढ़ी, उगल रहा अंगार।
धरा गगन पाताल सब, व्यथित लगे संसार।।

लगे नवतपा दिवस जब, चढ़ी हंडिया आग।
उबल रही है यह धरा, वर्षा ऋतु का राग।।

ग्रीष्म तपिश से झर रहे, वृक्षों के सब पात।
नव-पल्लव का आगमन, देता शुभ्र-प्रभात।।

वर्षा ऋतु का आगमन, सुनकर लगता हर्ष।
जीव जन्तु निर्जीव जन, तन-मन का उत्कर्ष।।

पगडंडी थी गाँव की, मिली सखीं जब चार ।
सिर पर गगरी ले चलीं, प्यास बुझाने नार।।

मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "

Read More

चिंताओं की गठरी बाँधे.. ...

चिंताओं की गठरी बाँधे, जीवन भर ढोए।
स्वार्थी रिश्ते-नातों ने ही, पथ-काँटे बोए।।

संसाधन के जोड़-तोड़ में, हाड़ सभी तोड़े।
एक लंगोटी रही हमारी, बाकी सब खोए।।

मोटी-मोटी पढ़ी किताबें, काम नहीं आईं।
जाने-अनजाने में हमतो, आँख मींच सोए।।

होती चिंता,चिता की तरह, समझाया मन को ।
नहीं किसी को मुक्ति मिली है, हार मान रोए।।

प्रारब्धों के मकड़ जाल में, उलझ गए हम सब।
पाप पुण्य के फेरे में पड़, पुण्य सभी धोए।।

मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "

Read More

कलयुग में न्यारी है यारी....

कलयुग में न्यारी है यारी।
अंदर से है चले कटारी।।

त्रेतायुग के राम राज्य पर,
कलयुग की जनता बलिहारी।

राजनीति में चोर-सिपाही,
खेलम-खेला बारी-बारी।

विश्वासों पर घात लगाकर,
चला रहे यारी पर आरी।

जनता ही राजा को चुनती,
नहीं समझती जुम्मेदारी।।

मतदाता मतदान न करते,
जीतें-हारें, खद्दर-धारी।

मतदानों का प्रतिशत गिरता,
यह विडंबना सब पर भारी ।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज

Read More

*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*नीर, नदी, धरती, बिवाई, ताल*

आँखों से जब भी बहा, मोती बनकर *नीर*।
मानवता ने पढ़ लिया, उसके मन की पीर।।

*नदी* जलाशय बावली, जीवन अमरित-कुंड।
ग्रंन्थों में हैं लिख गए, ऋषिवर कागभुशुंड।।

*धरती* की पीड़ा बढ़ी, कटे वृक्ष के पाँव।
सूरज की किरणें प्रखर, नहीं मिले अब छाँव।।

फटी *बिवाई* पाँव में, वही समझता पीर।
लाचारी की दुख व्यथा, बहे आँख से नीर।।

*ताल* तलैया सूखते, सूखे नद जल-कूप।
उदासीन दिखते सभी, क्या जनता क्या भूप।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Read More

चलो करें शुचिता की बातें....

चलो करें शुचिता की बातें।
फिर गुजरेंगी अच्छी रातें।।

रुई की पोनी सुनो बनाएँ।
हम सब मिलकर धागा कातें।।

बजी दुंदुभी प्रजातंत्र में।
राजनीति की बिछीं बिसातें।।

पेटों में जब आग लगी हो।
अंदर से उबलेंगी आतें।।

चीख-चीख कर भाषण होते।
सबके दल की लगीं कनातें।।

विघ्न निशाचर खड़े हुए हैं।
करते मानवता पर घातें।।

नारों से अखबार रँगे हैं ।
स्याही की खाली दावातें।।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज
16/5/24

Read More

ईश्वर ने उपकार किया है...

ईश्वर ने उपकार किया है ।
धरती का शृंगार किया है।।

संघर्षों से जीना सीखा,
मानव का उद्धार किया है।।

निज स्वारथ में डूबे रहते,
उनने बंटाढार किया है।

संस्कार को जिसने रोपा,
सुख का ही भंडार किया है।

लालच बुरी बला है यारो,
कुरसी पा अपकार किया है।

जब-जब नेता भरें तिजोरी,
जन-मन अत्याचार किया है।

सुख-दुख जीवन में हैं आते,
यही सत्य स्वीकार किया है ।

सुख की बदली जब भी बरसी,
जनता ने आभार किया है।

मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "

Read More

दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*चिरैया,जीव,धरती,दरार,ग्रीष्म*
=====================

उड़ी *चिरैया* प्राण की, तन है पड़ा निढाल।
रिश्ते-नाते रो रहे, आश्रित हैं बेहाल।।

*जीव* धरा पर अवतरित, काम करें प्रत्येक ।
देख भाल करती सदा, धरती माता नेक।।

गरमी से है तप रहा, *धरती* का हर छोर।
आशा से है देखती, बादल छाएँ घोर।।

दिल में उठी *दरार* को, भरना मुश्किल काम।
ज्ञानी जन ही भर सकें, उनको सदा प्रणाम।।

*ग्रीष्म* तपिश से झर रहे, वृक्षों के हर पात।
नव-पल्लव का आगमन, देता शुभ्र-प्रभात।।

मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Read More