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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
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स्वाभिमान अब बहुत घना है.....

स्वाभिमान अब बहुत घना है।
भारत उन्नत देश बना है।।

माना सदियों रही गुलामी।
शोषण से हर हाथ सना है।।

सद्भावों के पंख उगाकर।
वृक्ष बसेरा बड़ा तना है।।

आक्रांताओं ने सुख लूटा।
इतिहासों का यह कहना है।।

झूठ-फरेबी बहसें चलतीं।
कहना-सुनना नहीं मना है।।

रहें सुर्खियों में हम ही हम।
समाचार-शीर्षक बनना है।।

मानवता से बड़ा न कुछ भी।
इसी मार्ग पर ही चलना है।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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मन में उठे उमंग सुनो जी...

मन में उठे उमंग सुनो जी।
झूमे मस्त मतंग सुनो जी।।

फागुन का मौसम है आया।
चढ़ी सभी को भंग सुनो जी।।

होली की ऋतु हुई सुहानी।
छलक रहे है रंग सुनो जी।।

हुरियारों की टोली निकली।
नाची गोपी संग सुनो जी।।

देश विदेशों का रुख देखो।
छिड़ी आपसी जंग सुनो जी।।

युद्ध भूमि में तोपें गरजीं।
बिखरे मानव अंग सुनो जी।।

सत्ता के हित छिड़ी लड़ाई।
जनता होती तंग सुनो जी।।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज

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फागुन के दिन आ गये......

फागुन के दिन आ गये, मन में उठे तरंग।
हँसी-ठहा के गूँजते, नगर गाँव हुड़दंग ।।
कि होली आई है, रंगों को लाई है ।।
बसंती ऋतु छाई, सभी के मन-भाई
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

अरहर झूमे खेत में, पहन आम सिरमौर।
मधुमासी मस्ती लिये, नाचे मन का मोर।
गाँव की किस्मत चमकी, घरों में खुशियाँ दमकीं।
ये बालें पक आईं, खेत में लहराईं
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

जंगल में टेसू खिले, प्रकृति करे शृंगार।
चम्पा महके बाग में, गाँव शहर गुलजार।।
वो कोयल कूक रही है, मधुरिमा घोल रही है।
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

प्रेम रंग में डूब कर, कृष्ण बजावें चंग ।
राधा पिचकारी लिये, डाल रही है रंग।।
कृष्ण-राधे की जोड़ी, खेलती बृज में होली
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

लट्ठ मार होली हुई, लड्डू की बौछार।
रंग डालते प्यार से, पहनाएं गल-हार।।
नाचती रसिया टोली, करें मिल हँसी ठिठोली।।
यही मथुरा की होली, यही वृज की है होली।।

दाऊ पहने झूमरो, झूमें मस्त मलंग।
होरी गा-गा झूमते, टिमकी और मृदंग।।
ग्वाले सब घर हैं जाते, नाच गा धूम मचाते।
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

महिलाओं की टोलियाँ, हम जोली के संग।
बैर बुराई भूलकर, खेल रहीं हैं रंग ।।
यही संस्कृती हमारी, रही दुनिया से न्यारी
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

फाग-ईसुरी गा रहे, गाँव शहर के लोग।
बासंति पुरवाई में, मिटें दिलों के रोग।।
चलो जी हँसलो भाई, भुला दो सभी लड़ाई।
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

जीवन में हर रंग का, अपना है सुरताल ।
पर होली में रंग सब, मिलें गले हर साल ।।
सहिष्णुता हमें लुभाई, सभी हम भाई भाई
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

दहन करें मिल होलिका, मन के जलें मलाल ।
गले मिलें हम प्रेम से, घर-घर उड़े गुलाल ।।
कि एकता हर्षाई, प्रगति की डगर दिखाई
सुनो प्रिय श्रोता भाई,बजाओ मिलकर ताली
ये होली आई है, रंगों को लाई है ।।

मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'

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होली पर एक छंद मुक्त रचना सादर प्रस्तुत है

बढती हुई अपसंस्कृति

रास्ते में मुझे
कल एक सहपाठी नेताजी
टकरा गए।
बोले गुरु !
तुम यहाँ!
अच्छे तो हो?
मैंने कहा जी हाँ।
किंतु जरा जल्दी में हूँ। कल मिलूँगा।।
यार, तुम हमेशा जल्दी में रहते हो,
जब भी समय मांगता हूं टाल देते हो
मैं समाज में बढ़ रही
अप संस्कृति को रोकना चाहता हूं ।
और अपने संग
तुम जैसे साहित्यकारों को जोड़ना चाहता हूं ।
उनकी इस बात पर मैं रुक गया।
उनके सामने झुक गया ।
वह बोले हर साल की तरह
हम सब मिलकर कल
होलिका दहन कराएंगे।
हंसी-खुशी के साथ
फिर पैमाना भी छलकाएँगे।
मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आया।
मैंने भी तुरंत नहले पर दहला जमाया ।
आप इस तरह होलिका दहन करवा कर
कैसे अपसंस्कृति की रक्षा कर पाएंगे?
यह सुन नेता अचकचाया,
मुझे घूरा और बड़बड़ाया।
मुझसे कहा-
लगता है जैसे तेरा कोई स्क्रू ढीला है
या कल अवश्य पी होगी?
मैंने कहा यार,
क्या कहते हो?
नशे में डूब कर
वर्तमान को भुलाना मुझे नहीं आता।
इसलिए आप लोगों की तरह त्यौहार मनाना
मुझे नहीं भाता।
मेरे भाई यदि आपने सही मायने में
होलिकादहन कराया होता।
तो देश का नजारा ही कुछ और होता।
भाईचारे की भावना के साथ होती
देश की प्रगतिशीलता और संपन्नता
तब धर्म भाषा के नाम पर हम कभी ना लड़ते
ना कभी अकड़ते।
हमने उनके गले में हाथ डालकर समझाया यार,
होलिका हमारे दिलों में घुसी
काम क्रोध लोभ मोह द्वेष और अहंकार जैसी बुराइयों का दूसरा नाम ही तो है,
जिस दिन हम उन्हें दहन कर पाएंगे।
उस दिन हम सही मायने में
होलिका दहन कर पाएंगे ।
तभी हम सही मायने में
अपने देश समाज को इस बढ़ती
अप संस्कृति से बचा पाएंगे।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ.....

अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ।
नेह आँख में झाँक-झाँक कर, जिंदा हूँ।।

आश्रय की अब कमी नहीं है यहाँ कहीँ,
चाहत रहने की अपने घर, जिंदा हूँ।

खोल रखी थी मैंने दिल की, हर खिड़की।
भगा न पाया अंदर का डर, जिंदा हूँ।

तुमको कितनी आशाओं सँग, था पाला।
छीन लिया ओढ़ी-तन-चादर, जिंदा हूँ।

माना तुमको है उड़ने की, चाह रही।
हर सपने गए उजाड़ मगर, जिंदा हूँ।

विश्वासों पर चोट लगाकर, भाग गए।
करके अपने कंठस्थ जहर, जिंदा हूँ।

धीरे-धीरे उमर गुजरती जाती है।
घटता यह तन का आडंबर, जिंदा हूँ।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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अपनों से अब डर लगता है....

अपनों से अब डर लगता है।
छलछद्मों का घर लगता है।।

जिसको दोस्त समझते अपना,
कुछ दिन बाद अदर लगता है।

नव पीढ़ी की सोच अलग अब,
रूठे अगर कहर लगता है।

सम्मानों की लिखी इबारत,
बिगड़ा-बोल जहर लगता है।

टीवी में जब बहसें चलतीं,
ज्ञानी अब विषधर लगता है।

न्यायालय में लगीं अर्जियां,
डरा हुआ अंबर लगता है।

सदियों बाद सजी अयोध्या,
पावन पवित्र नगर लगता है।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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महाशिवरात्रि पर्व में, करते शिव का ध्यान।
आदि शक्ति दुर्गा कृपा, कष्ट हरें श्री मान।।

धरा प्रफुल्लित हो रही,निकली शिव बारात।
शिव की शुभ आराधना, कष्टों को दें मात।।

गंग निकलती जटा से, नीलकंठ है नाम।
चंद्र बिराजे भाल पर, सृष्टि सृजन का काम।।

डम-डम डमरू है बजे, गूजें स्वर अविराम।
सर्जक अक्षर ध्वनि के, दुख-संहारक काम।।

तीन नेत्र के शंभु जी, महिमा बड़ी अपार।
खुला तीसरा नेत्र जब, जगका बंटाढार।।

भस्म लगा कर बैठते, योगी का धर वेश।
हिम गिरि की है कंदरा, शिव शंकर का देश।।

सिंह वाहिनी भगवती, दुष्ट दलन संहार
दत्तात्रेय गणेश का, वंदन बारंबार।।

भोले भंडारी कहें, या फिर पशुपतिनाथ।
औघड़दानी शंभु जी, झुका सदा यह माथ।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

जबलपुर में कचनार सिटी में 70 फुटी विशाल शिव मूर्ति

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*वसंत, बहार, मधुमास, कुसुमाकर, ऋतुराज*

ऋतु वसंत की थपकियाँ, देतीं सदा दुलार।
प्रेमी का मन बावरा, बाँटे अनुपम प्यार।।

चारों ओर बहार है, आया फिर मधुमास।
धरा प्रफुल्लित हो रही, देख कृष्ण का रास।।

छाया है मधुमास यह, जंगल खिले पलाश।
आम्रकुंज है झूमता, यह मौसम अविनाश।

कुसुमाकर ने लिख दिया, फागुन को संदेश।
वृंदावन में सज गया, होली का परिवेश।।

ऋतुओं का ऋतुराज है, छाया हुआ वसंत।
बाट जोहती प्रियतमा, कब आओगे कंत।।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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ईश्वर से वरदान मिला है...

ईश्वर से वरदान मिला है ।
जीवन से अब नहीं गिला है।।

अच्छे भाव रखें हम मन में।
घर आँगन में फूल खिला है।।

पथ में काँटे मिले सदा हैं।
यह तन यों ही नहीं छिला है।।

कल तक था यह गाँव हमारा।
बना हुआ अब नया जिला है।।

परिवर्तन जीना सिखलाता।
मुर्दा तन फिर कहाँ हिला है।।

उच्च विचार रहें जीवन में।
जीने की मजबूत शिला है।।

मानवता की सुखद निशानी।
हिन्दुस्तान अभेद्य किला है।।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज
17/2/25

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सबकी अपनी राम कहानी......

सबकी अपनी राम कहानी।
आलौकिक गंगा का पानी।।

सबके अलग-अलग दुखड़े हैं,
पक्की-छत तो, उजड़ी-छानी।।

भटका तन जंगल-जंगल है,
सत्ता गुमी मिली पटरानी।

जीवन जिसने खरा जिया है,
उसका नहीं मिला है सानी।

शांति स्वरूपा सीता खोई,
ढूंढ़ेंगे हनुमत सम-ज्ञानी।

रावण का वैभव विशाल था,
पर माथे पर थी पैशानी।

एक-एक कर बिछुड़े अपने,
फिर भी रण हारा अभिमानी।

संघर्षों में छिपी पड़ी है,
पौरुषता की अमर जुबानी।

राम राज्य का सपना सुंदर,
देख रहा हर हिंदुस्तानी।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज

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