वो उठती है...
सुबह की पहली रोशनी से पहले,
जब नींद ने आँखों को ठीक से छोड़ा भी नहीं होता,
और चिड़ियों ने गाना शुरू किया ही होता है |
बालों को खूँटी में बाँधती है,
कपड़ों में दिन भर की थकान पहले से सिलती है |
गैस जलाकर रोटियाँ बेलती है
और इसी बीच...
मन के किसी कोने से एक पंक्ति टपकती है,
कोमल, कच्ची, अधूरी...
"क्या अब?"
वो पूछती है खुद से,
और जवाब में
दूध उबाल की तरफ़ भागने लगता है |
बच्चों की जुराबें,
पति की फाइल,
डिब्बे, छाते, स्कार्फ और शिकायतें...
हर चीज़ में उलझती हुई,
वो भूल जाती है उस पंक्ति को
जो उसके भीतर कविता बनना चाहती थी |
वो कनअँखियों से देखती है अपने ही भावों को,
जैसे कोई माँ चुपचाप देखती है
खिड़की से बाहर खेलते अपने..
बच्चों को..
उसे आता है सब संभालना,
सिवाय खुद को संवारने के |
कभी सब्जियां काटते हुए
उसकी अंगुलियों से बहता है एक शेर,
कभी पोंछा लगाते हुए
धूल में लिपटा एक गीत |
लेकिन समय?
वो तो सिर्फ़ दीवार पर
घड़ी की तरह टंगा है..
सामने है, पर कभी उसका नहीं |
वो सोचती है....
आज भी एक कविता
चाय के उबाल में बह गई,
आज फिर....
एक कविता अधूरी रह गई,
जैसे वो खुद...
अधूरी ख्वाहिशों, टुकड़े-टुकड़े ख्वाबों
और नज़्मों से भरे दिल की
पूरक पंक्ति खोजती रही |
उसकी ज़िन्दगी में सबसे अधूरी चीज़
वो खुद है... एक ऐसी नज़्म,
जो अब भी लिखे जाने के इंतज़ार में है |
~रिंकी सिंह
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