(माँ सी स्त्रियां)
नहीं… माँ तो एक ही होती है,
पर जीवन के मोड़ों पर
कई स्त्रियाँ माँ की परछाईं बनकर खड़ी मिलती हैं
वे दादी..
जो चूल्हे की आँच में
हमारी सर्द होती मासूमियत को गरमाती रहतीं
वे चाची..
जो डाँट में भी अपना ही अधिकार डालकर
रोज़ की टेढ़ी चोटियाँ सीधी कर जातीं
वे बुआ..
जो बिना कहे समझ लेती थीं
कब मन रूठा है, कब हौसला टूटा है
वे भाभी..
जो आधी रात की थकान में भी
हमारे कपड़ों की फटी सिलाई में
अपनी ममता की डोरी तुरप देतीं
वे पड़ोसिनें..
जिन्हें हम किसी नाम से पुकारते थे,
पर वे हर बार
माँ जैसी ही गोद,
माँ जैसी ही छाँव बनकर
दरवाज़े पर खड़ी मिलती थीं
कभी दवा की पुड़िया में चिंता बांध देतीं,
कभी हँसी की पोटली में दिन हल्का कर देतीं,
कभी कंधे पर हाथ रखकर
अनदेखे भारी बोझ कम कर देतीं
मायके लौटने पर
सबसे पहले यही औरतें दौड़ी आतीं..
कलेजे से लगातीं, बलाएं उतारतीं
हमारे बच्चों पर प्यार लुटातीं
हमारे बचपन के किस्से उन्हें सुनातीं
इन स्त्रियों ने ही तो सिखाया..
रिश्ते निभाना भी एक कला है,
और प्यार बाँटना
एक निःस्वार्थ पूजा
मुझे तो हमेशा
ये सारी औरतें
शीतल सी पुरवाई
ममता की परछाईं,
और जीवन की गुप्त देवियाँ लगीं
जो बिना नाम के, बिना मांग के
हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी
आसान कर देती हैं
मैंने देखा है..
शायद सबने देखा होगा..
ऐसी स्त्रियों को..
जो हमारी माँ न होकर भी
हमारी रगों में ममता घोल जाती हैं
दूर रहने पर वे भी,
माँ जितनी ही याद आती हैं
~रिंकी सिंह ✍️
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