मेरी जिंदगी कुछ ऐसी थी,
रामेश्वरम में छोटी कुटिया में,
इस अब्दुल की पुकार हुई।
हां मैं ही था, सितारों में सपने देखनेवाला,
छोटी आँखो मे आकाश नापने वाला।
माँ के आँचल में पलता था,
पिताजी की पड़छाई बनता था,
अनपढ़ थे फिर भी जिंदगी की कहानी रखते थे,
हा वही सिख से आज तक जिया था।
कुछ ऐसी थी जिंदगानी मेरी।।।।।
मन में ऊंची उड़ान थी
आँखो में कुछ करने का जुनून था,
मेरे कदम भले ही छोटे कदके थे,
पर लंबे सफ़र का पथ नापना था।
रुकना, थकना, हारना
मैं जानता नहीं था,
मानता था बस इतना ही
की ,"खुद को गिसलूं"
आने वाले कल(नयी पेढ़ी) को सवारलू..”
दोड़ता रहा हरदम मैं
क्यू की फक्र से खड़ा रहे
मेरा हिंदुस्तान।।
कुछ ऐसी थी जिंदगानी मेरी।।।।