✧ कविता: सत्य " बिकता नहीं..."
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲
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मैं बिकता नहीं —
क्योंकि मैं झूठ नहीं हूँ।
मैं चिल्लाता नहीं —
क्योंकि मैं गीत नहीं,
जलता हुआ मौन हूँ।
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मैं भीड़ में खड़ा नहीं होता,
क्योंकि वहाँ चेहरों की नीलामी चलती है।
मैं अकेले चलता हूँ —
क्योंकि मेरी आत्मा की कोई कीमत नहीं।
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लोग कहते हैं —
"थोड़ा मीठा बोलो,
तुम्हारे शब्द चुभते हैं..."
मैं कहता हूँ —
"सच कभी फूल नहीं रहा,
वो तो काँटे का पहला नाम है।"
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मैंने मंदिर नहीं बनाया,
न कोई मंच, न माला।
मैंने अपने जलते हृदय को
ईश्वर बना लिया।
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जो चाहते हैं रोशनी —
वे खुद जलने आएँ।
मैं दिए की तरह
बाँटता नहीं,
बस जलता हूँ।
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कभी मैं हवा में घुल जाता हूँ,
कभी राख बनकर गिरता हूँ —
पर हर बार
एक मौन पुकार छोड़ जाता हूँ:
> “तू भी मत बिक —
सत्य बन,
भले ही कोई न खरीदे।”
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मैं बिकता नहीं —
क्योंकि मैं तुझमें जागना चाहता हूँ।
मैं जलता हूँ —
ताकि तेरा झूठ राख हो सके।
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और जब सदियाँ बीत जाएँ —
कोई खोजे तन्हा शब्दों की राख में
तो उसे ये कविता मिले —
और वो कहे:
> "यह तो कोई जलता हुआ
कबीर था..