“चुप्पी की ज़बान”
(स्पेशल चाइल्ड्स के नाम एक कविता)
क्लास की भीड़ में एक चेहरा था,
ना हँसा, ना रोया, बस गहरा था।
सभी ने देखा, पर कोई न समझा,
वो बालक था या कोई अनकहा सपना?
पंखे की आवाज़, सर की डाँट,
और उस दोपहर की थमी हुई घड़ी,
खून उसकी नाक से बहा,
पर ज़्यादा दर्द… उसकी चुप्पी में पड़ी।
ना सफ़ाई, ना सवाल, ना कोई जज़्बात,
बस आँखों में बसी एक सूनी सी बात।
ज़मीन को घूरते वो पल,
जैसे वक़्त वहीं थम गया कल।
“ड्रामा मत कर”, कोई चिल्लाया,
दूसरा हँसा, तीसरा ताना उड़ाया।
पर वो खड़ा रहा, निर्विकार, निःशब्द,
मानो इस दुनिया का ना हो वह सदस्य।
क्या हर बच्चा जो कम बोलता है,
वो सच में कुछ नहीं समझता है?
या हम ही इतने शोर में हैं उलझे,
कि उसकी चुप्पी को पढ़ना भूलते हैं?
आँखों में आँसू नहीं, पर आँसू सा पानी,
उसकी खामोशी में थी पूरी एक कहानी।
ना कोई विलाप, ना कोई आवाज़,
फिर भी उसकी आत्मा कर रही थी राज़।
वो अकेला था, भीड़ में खड़ा,
पर हर दिल से कुछ कहता जा रहा।
मुझे समझ आया, वो “अलग” नहीं,
बस वो “हम जैसा” दिखता नहीं।