क्या तुम्हें याद है .................................
मज़बूत लकड़ी के पुल पर खड़ी कमज़ोर मैं,
और नदी की लहरों को पीछे ढ़कलते तुम,
खोई हुई थी मैं अपनी दुनिया में,
और अपनी दुनिया में गुम चप्पू चलाते तुम,
ऐ बिन देखें हमारी पहली मुलाकात थी,
क्या याद है तुम्हें नदी से ज़्यादा गहरी हम दोनों की आँख थी ........................................
हम दोनों वहां से चले गए मगर वो मंज़र वहीं थम गया,
पुल वहीं नदी वहीं हम दोनों का उस पहली मुलाकात में कुछ खो गया,
हम दोनों एक जैसे है मैं किनारा पर खड़ी हूँ और तुम किनारे पर छोड़ने वालो में खड़े हो,
सुना है बड़ा शौक है तुमको सफर करने का तुम निकल पड़ते हो राज़ाना नई मंज़िल की तलाश में,
और बांध जाते हो मुझे एक नए सफर के एहसास में,
क्या याद है तुम्हें हम आखिरी बार कब मिले थे,
जब बैठी थी में तुम्हारी नाव पर और तुम हमारी आखिरी सफर की दास्तान लिख रहे थे............................
खैर छोड़ो उस पुरानी कहानी को भूल जाते है,
मैं आज भी जाती हूँ उस मज़बूत पुल पर जो अब मुझे पहचानने लगा है,
बैठा लेते है मुझे अपने पास और नदी के साथ मिलकर तुम्हें याद करता है,
दिन ढ़लते ही घर वापसी की तैयारी होती है,
तुम शायद याद नहीं करते हमें,
मगर हमारी अक्सर तुमसे जुड़ी बात होती है,
क्या याद है तुम्हें कि कोई वादों का वादा नहीं हुआ था,
मगर ऐ भी सच है कि किनारे पर लोगों को छोड़ जाने के व्यवसाय बंद करने का वादा भी नहीं हुआ था..................
स्वरचित
राशी शर्मा