अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर
विश्व की सभी महिलाओं के लिए 💖
संवेदन के तट पर-मैं
(नारी )
मैं जिधर भी चल पड़ी हूँ मार्ग खिल खिल से गए हैं
जाने कितने बंध मुझको पवन से खुलते लगे हैं
मैं पथिक हूँ इस धरा की चल रही कितने युगों से
पाँव में छाले पड़े तो क्या हुआ विचलित नहीं हूँ------
हृदय की जिजीविषा कुंदन बनी है, तप रही है
श्वाँस की तपती धरा है जिसमें बाती जल रही है
और मैं उजले सहर की एक उजली किरण बनकर
सब अँधेरों को सिरहाने रख खड़ी मुस्का रही हूँ
काल से कवलित नहीं हूँ - - - - -
शेष सपने हैं तो क्या है
किसके सब पूरे हुए हैं
पर्वतों पर दृष्टि डालें लक्ष्य तो अब भी तने हैं
चाँदनी की ओट लेकर आवरण में वे पले हैं
मैं धरा की तीर्थ सी
मन की परीक्षा कर रही हूँ
सच कहूँ, विगलित नहीं हूँ-----
डॉ.प्रणव भारती