अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश समेत भारत के कई क्षेत्रों में हुई बेमौसम बरसात, आंधी-तूफ़ान और ओलावृष्टि ने किसानों की फसलें चौपट कर दीं| कई क्षेत्रों से ऐसी तस्वीरें आयीं जहाँ गेहूं की खड़ी फसल इस मौसमी प्रकोप की शिकार होकर गिर गयी, बरबाद हो गयी| हालांकि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए पीड़ित किसानों के लिए मुआवजा घोषित कर दिया, किन्तु क्या ये पर्याप्त है? क्या सरकार इसे एक दैवीय आपदा मानकर पीड़ितों को मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो सकती है?
ध्यान दें कि पिछले कुछ वर्षों से मौसम ने अप्रत्याशित तौर पर बदलना शुरू कर दिया है, जिसका सीधा असर हमारे देश के अन्नदाता पर पड़ रहा है| किसान बहुत मेहनत से अपने खेत में फसल उगाता है फिर अचानक एक दिन मौसमी हमला होता है और उसकी फ़सल बरबाद हो जाती है, सरकार कुछ धनराशी मुआवज़े का देकर अपनी जिम्मेदारी से खुद को मुक्त मान लेती है| लेकिन किसान के वर्षभर के लिए संजोये गए सपने उस मुआवज़े से किसी प्रकार जीवन जीने के संघर्ष में परिवर्तित हो जाते हैं|
हमें समझना होगा कि हजारों वर्षों से हमारे देश का कृषि विज्ञान प्रकृति के साथ संतुलन पर आधारित है| हमारे मनीषियों ने ऋतु-चक्र पर आधारित फ़सल-चक्र का निर्धारण किया था| किस क्षेत्र में कब और कितनी बरसात होती है, किस क्षेत्र की जलवायु और मिट्टी कैसी है उसी हिसाब से कहाँ कौन सी फसल कब उगाना श्रेष्ठ होगा ये निर्धारित किया गया|
आज भी हम फ़सल के जिस रबी और खरीफ के मौसम के आधार पर कृषि कार्य करते हैं वो मूलतः हमारे पुरातन ऋतु-चक्र पर आधारित फ़सल-चक्र का ही रूप है| किन्तु अब जिस प्रकार ऋतु-चक्र तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है, हमें जल्द ही आवश्यकतानुसार उचित शोध करके अपने फ़सल-चक्र को बदलते ऋतु-चक्र के अनुसार परिवर्तित करना होगा|
अच्छा होगा कि सभी राज्य सरकारें अपने-अपने राज्य में बदलते ऋतु-चक्र के कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव का विस्तृत शोध करवाएं और उसी के अनुसार अपने क्षेत्र के किसानों को जागरूक करें एवं उनका मार्गदर्शन करें|
जय किसान!
जय हिन्द!