10/11/2022
रचनाकार - प्रमिला कौशिक
पुल
बिन नाव के सबको
पार उतारता था मैं।
पर आज डुबोने का
बदनाम हो गया मैं।
निर्माता ने मेरे, गढ़ा
मुझे था, जी जान से।
मज़बूती से पैर जमाए
खड़ा था मैं शान से।
धीरे-धीरे उम्र मेरी भी
बढ़ती अब जा रही थी।
और शक्ति मेरे तन की
घटती ही जा रही थी।
जैसे बुज़ुर्गों के अंगों की मरम्मत
व प्रत्यावर्तन किया जाता है।
वैसे ही मेरे जीर्णोद्धार का
भी निर्णय लिया जाता है।
एक अयोग्य कंपनी को अब ठेका
जीर्णोद्धार का दे दिया गया था।
पुराने अंगों को मेरे बदलने की बजाय
बस रंग से चमका भर दिया गया था।
सतह को मेरी लकड़ी की बजाय
एल्यूमीनियम से ढक दिया गया था।
इस आवरण से तन मन मेरा
मनों टनों भारी हो गया था।
कैसे सँभालता मैं लोगों का भार
जब अपना ही सँभाल नहीं पा रहा था।
पुल टूटने से मरे बहुत से लोग, और
दोष ईश्वर के मत्था मढ़ा जा रहा था।
जिनके जिम्मे था मेरी मरम्मत का भार
उन्हें दृश्य से ही गायब किया जा रहा था।
बेचारे छोटे छोटे थे जो कर्मचारी निर्दोष
गिरफ्तार उन्हें ही किया जा रहा था।
आख़िर क्यों छूट जाते हैं, रसूखदार दोषी
मेरे देश का ऐसा, यह हाल क्यों है ?
पूछता हूँ मैं सवाल, ऐसे मुद्दों पर
सत्तापक्ष आख़िर, सदा मौन क्यों है ?
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