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एक कविता,
परिपक्व होने से पहले
होती है एक बेतरतीब
शब्दों का ताना-बाना!
जाेकि,,
अपने प्रारंभिक सृजन में,
सहेजती है कुछ मूल शब्द
और,
और इन मूल शब्दों की
काँट-छाँट होते-२ जन्म लेते हैं
नवीन शब्द!
कुछ पुराने शब्द मिटते जाते हैं...
या मानो
स्वयं त्याग देते हैं खुद को,
नये शब्दों को
उड़ान भरने के लिये!
पर,
उन मिटे हुये
शब्दों का बलिदान
व्यर्थ नहीं जाता !!
अपने मिटने से पूर्व,
वो देकर जाते है,
अपने से बेहतर एक उत्तम विचार !
जिस पर कविता पल्लवित होती है,
अपने सर्वोत्तम शोभायमान रूप में!
नव प्रतिस्थापित शब्द समूह
कविता में,
'ताजमहल' की भाँति
अमर हो जाते हैं,
मगर,
रचना सृजन के दौरान
मन में आने वाले
'मूल शब्द'
उस मजबूत बुनियाद
की भूमिका की भाँति
दैदीप्यमान रहते हैं सदा,
जब कविता का नव कोपल
कवि ह्रदय में
विचार-रूपी भाव के साथ
पनपा था !
- *कुँ० धर्मेन्द्रप्रताप सिंह भदौरिया*