मुक्ति पथ
अविरत चपल है कालचक्र, नित चलता रहे निशिवासर।
अम्बर दिग के दृग देखे है, नही भूले वो शशि प्रभाकर।
चारु चमक चंचल चितवन, कंचन भूषण सज्जित थी।
अखिल श्रृंगार से शोभित, मनमोहक छवि में भारत थी।
सोने की चिड़िया कहलाती, बनी भंजको की धर्मशाला।
शाश्वत है साक्षात प्रमाण, सिंधु–सा गहरा है स्मृतिशाला।
वसन फटे तनु पर लिपटी, अवनत अंबक आनन की।
छाल छिले देह मुरझाई, उलझी बिखरी लट शेखर की।
पगली बन सूली पर लटकी, बंधी हाथ पांव साँकल से।
बंधक बन अधमो के दासी, वंचित हुई थी उदकल से।
देख दशा लालों की अपने, गरज-गरज रुदन किया।
घुट-घुट के रह जाती हिंद, मर-मर कर उसने जिया।
खण्ड-खण्ड गृहीत किया, दुर्गति करते जन जीवन को।
कुचल रहे पतित पांवो से, छलनी करते वक्ष स्थल को।
लज्जित करते नारी को, अबला छिपती फिरती रहती।
असीम वेदना को सहती, तिल-तिल नित्य जीती मरती।
नवजातों को भी ना छोड़े, जयमाला रक्तो की बहती।
निर्मम से नर संहार हुआ, रणक्षेत्र बना ये पावन धरती।
जन में छाई आग अँधियारी, दुर्गम का गंतव्य हुआ था।
मचा चहुदिशा में हाहाकार, त्राहि-त्राहि से गूंज रहा था।
कहर-कहर गुहार लगाती, अमित विक्षोभ हिय में भरा।
जन-जन थे दीन दशा में, शव शैय्या बना था हिंद धरा।
जिस भू के वीर बालपन में, गणक किए दंत सिंहो के।
नक्षत्र लोक भी दंग हुआ था, दुर्दशा देखकर हिंदो के।
लहूलुहान थी भारत माता, देख दशा बने वीर रखवाला।
मुक्तिपथ पर निकल पड़े, उबल रहा था भीषण ज्वाला।
संघर्ष किए डट खूब लड़े, रणघोष किए आजादी का।
शत्रु भी परास्त हुए, उछाह भरा शौर्य देख वीरों का।
शत्रुजय कर स्वाधीन हुए, पावन तिरंगा परचम लहराया।
विद्वान वीर इस धरती पर जन्मे, जगत गुरु है कहलाया।
सतेश देव पाण्डेय
मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश