मुजे पता ही नहीं में कौन हूँ !?
हाँ हैं हम दोनों आज अलग 
पर तुम ना सही में रोज याद करती हूँ तुम्हें 
साँवरती हूँ जब बाल आईने के सामने 
तो लगता हैं तु पीछे वो झूले पर
बैठे-बैठे ताड़ रहा हैं मुजे 
और बस कुछ ही पल देर हैं 
तु पास आकर बाहों में भर लेगा मुजे 
अलमारी मेरी भरी पड़ी हैं 
तेरी पसंदीदा चीज़ो से 
कहां खोजूं मेरी पसंद को 
जो गुम हैं तेरे आनें से 
वो लाल बिंदी और काले के झूमखें 
पैरों की नुपुर, ने जगा ले रखी हैं 
आँखो में लगाती हूँ काजल तो तेरे 
अल्फ़ाजो का इन्तज़ार हैं , की
" तेरी सजी आंखे मैनें खरीद रखी हैं " 
किसी दिन मे दरवाज़ा खोलूं 
और किचनमें सुनाई पड़े शोर 
दिल तो यहीं सोचेगा काश तुम होगे 
देखूँ जब जाकर वहा तो 
बिल्ली बनी बेठी हैं चोर 
पर में तेरे अलगाव को जानतीं हूँ 
तु होता तो चिल्लाकर कहेता 
"आज भी मेरी चाय अलग क्यूँ नहीं बनाई! 
अदरख मुजे पसंद नहीं हैं भुल गई क्या!?" 
कैसे भूलूँ मैं 
अदरखवाली चाय छोड़ जो दी हैं मैनें 
तुम अलग तो बहुत थे महोब्बत में भी 
और हकीकत में भी 
पसंद तुम्हारी हमेशा अलग जो होती थी 
टिक ही ना पाया तेरा अलगाव 
जिसके रहते आदत डाली मैनें 
सिर्फ़ तेरे अल्फाज़ को सुनने की 
सिर्फ़ तेरी पसंद चुनने की 
तेरा अलगाव मेरी इबादत को 
कुछ इस तरह तोड़ गया 
की अब मुजे पता ही नहीं में कौन हूँ !?
-मानसी पटेल " मेह "