मैं वो रौशनी हूँ जो..
अंधेरा चीर कर सहर में रही
तूफान सी तेज़ी है मुझमें
मैं समन्दर की हर लहर में रही
झिलमिलाती हूँ चराग़ों सी
मैं आब -सी गुहर में रही
इंसानियत की लौ अभी है मुझमें
मैं ज़िंदा बशर सी रही
तारीकियों को कैसे मान लूँ मुक़द्दर
कैसे हार जाऊं हालात से
ये वो मंज़िल नहीं है जिसके लिए
मैं तमाम उम्र सफ़र में रही...
-मधुमयी
गुहर-मोती
बशर-इंसान