#एक_विवशता_रही_उम्र_भर_के_लिये
तुझमें होकर भी हम ना तुम्हारे रहे
मुझमें होकर भी तुम ना हमारी रही
एक विवशता रही उम्र भर के लिये
दिन सिसकते रहे, रात भारी रही
प्रीति लड़ती रही नीतियों से सदा
देह ने रीतियों पर समर्पण किया
प्राण में दीप सुधियों के जलते रहे
नेह का पुष्प तुमको ही अर्पण किया
नियति से आस्था की बनी ही नहीं
वास्तविकता सदा तुमसे हारी रही
एक विवशता रही उम्र भर के लिये
दिन सिसकते रहे रात भारी रही
मन में एक अल्पता तो छुअन की रही
एक तुम्हारे हमारे मिलन की रही
तुम जो ढलती रही गीत के अक्षरों में
मन की हर अल्पता सिर्फ मन की रही
चाह में तुम रही, तुम रही हर घड़ी
बाँह में हर घड़ी एक लाचारी रही
एक विवशता रही उम्र भर के लिये
दिन सिसकते रहे रात भारी रही
तुझमें होकर भी हम ना तुम्हारे रहे
मुझमें होकर भी तुम ना हमारी रही
अभिनव सिंह "सौरभ"