कोई अनजाना सा उस दिन मन को मेरे भाया था
आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था
नींद ना आती रात-रात भर जगता ही रहता था
होश नहीं था कब दिन ढलता कब सूरज उगता था
नयनों में उसकी एक सलोनी सी तस्वीर बसी थी
तन तो घर में रहता था पर मन खोया रहता था
सुबह शाम हर ओर हमेशा उसका ही साया था
आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था
हाथों में रहता फोन, फोन में फेसबुक की स्टोरी
स्टेटस में पड़ती प्रेम की लम्बी लम्बी थ्योरी
जाने कितनी बार खोलता था उसकी प्रोफाइल
हर पाँच मिनट में लगती थी वाट्सएप पर फेरी
मैसेज चेक करने में जाने कितना वक्त गँवाया था
आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था
घर के बागीचे वाले फूलों में उसकी सूरत दिखती थी
चाहे जिधर चलूँ मैं वो भी साथ साथ चलती थी
कब आयेगा वो दिन जब उसके सम्मुख बैठुँगा
हर पल दिल में बस एक ही हसरत पलती थी
झूम उठा था जब उसने मिलने के लिये बुलाया था
आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था
खुशियों की बारात लगी थी नींद मुझे ना आयी
कानों में बजती रही रात भर मीठी मीठी शहनाई
क्या बोलूँगा, क्या पहनूँगा प्रश्न उठे थे कितने
इधर उधर में जाने कब नयी सुबह थी आई
मिलने की आतुरता में मन मेरा भरमाया था
आँखो की पुतली पर फिर एक स्वप्न उभर आया था
अभिनव सिंह "सौरभ"