धरोहर - लघुकथा -
"सुनो जी, आज अपनी गुड्डी चार साल की हो गयी।वह सुबह से आज जलेबी खाने की जिद कर रही है। अपनी सहेलियों को भी जन्मदिन पर जलेबी खिलाना चाहती है।"
"सुमन, तुम तो जानती हो शहर के हालात।काम धंधा सब बंद है।घर में फूटी कौड़ी भी नहीं है।"
"लेकिन उस छोटी बच्ची को कैसे समझाऊं कि घर में जहर खाने को भी पैसे नहीं है।"
"सुमन, बड़ी मुश्किल से लाला से एक एक किलो दाल चावल उधार माँग कर लाया हूँ।"
"सुनो जी, एक बात बताओ, तुमने इस देश के लिये इतने पदक जीते। बदले में क्या मिला? सरकार एक छोटी सी नौकरी भी नहीं दे सकी।"
अचानक श्रीधर को जैसे कुछ याद आया, वह मंदिर वाले आले में से एक छोटी सी सुनहरे कपड़े की थैली उठाकर बाहर निकल गया।
सुमन आश्चर्य से उसे पीछे से पुकारती रही। मगर वह उसकी आवाज़ को अनसुनी करके चला गया।सुमन घर की देहरी पर खड़ी उसे जाते हुए बेबस सी देखती रही।
दिन ढले श्रीधर लौटा।दोनों हाथों में खाने के सामान थे।एक बड़े से डिब्बे में ढेर सारी गरमा गरम जलेबियाँ थीं।
"यह सब सामान कैसे मिला?"
"पहले गुड्डी और उसकी सहेलियों को गरमा गरम जलेबी खिलाओ।फिर पूछना यह सब।"
गुड्डी और उसकी सारी सहेलियाँ जन्मदिन को उत्सव की तरह खुशी खुशी मनाने में लग गयीं।मगर सुमन अभी भी इसी उधेड़्बुन में उलझी थी कि आखिर इतने पैसे ये कहाँ से लाये।
मन पर नियंत्रण नहीं हुआ तो उसने फिर वही सवाल दाग दिया,"बताओ ना, यह सब कैसे हुआ?"
"यह तुम्हारे ही कारण हुआ।
"क्या मतलब?"
"जैसे ही तुमने मुझे मेरे पदकों की याद दिलायी। बस सब संभव हो गया।"
"तो क्या तुमने पदक बेच दिये?"
"नहीं गिरवी रख दिये।"
"हाय राम, यह क्या गज़ब कर दिया तुमने, वही पदक तो इस घर में एक ऐसी धरोहर थे जिसे तुम सबको बड़े गर्व से दिखाते थे।"
"अरे पगली, उधर देख, गुड्डी के चेहरे पर जो खुशी है इस वक्त, वह मेरे लिये दुनियाँ की सबसे बड़ी धरोहर है।"
मौलिक लघुकथा -