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TEJ VEER SINGH

TEJ VEER SINGH

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बहुरूपिया - लघुकथा ----
"अरे अरे उधर देखो, वह कौन आ रहा है। कितना विचित्र पहनावा पहन रखा है। और तो और चेहरा भी तरह तरह के रंगो से बेतरतीब पोत रखा है।चलो उससे बात करते हैं कि उसने ऐसा क्यों किया।"
"नहीं नहीं, पागल मत बनो। कोई मानसिक रोगी हुआ तो? पता नहीं क्या कर बैठे?"
"तुम तो सच में बहुत डरपोक हो सीमा|"
इतने में पास से गुजरते एक बुजुर्ग ने उन बालिकाओं का वार्तालाप सुना तो बोल पड़े,"डरो नहीं, ये हमारे मुल्क के बादशाह हैं। यह इनका देश की गतिविधियों को जाँचने परखने का तरीका है। यह भेष बदल कर समूचे देश में भ्रमण करते हैं।"
"इससे क्या हांसिल होगा?"
"बहुत कुछ।"
"जैसे?"
"लोगों द्वारा किये गये वार्तालाप से चोरों, बेईमानों और शासन के खिलाफ़ साजिश करने वालों का खुलासा होता है।"
"लेकिन हमने तो सुना है कि बादशाह खुद ही दुराचारी और घमंडी है।"
"हो सकता है कि यह मिथ्या प्रचार उसके विरोधी फैला रहे हों।"
"बादशाह तो आये दिन विरोधियों को कारागार में डलवा रहा है।कितनों को तो मरवा डाला।"
"शासन को सुचारु और व्यवस्थित रखने के लिये कुछ कठोर कदम तो उठाने ही पड़ते हैं।"
"लेकिन सुशासन तो कहीं भी नज़र नहीं आ रहा?"
"ऐसा किस आधार पर कह रहे हो?"
"हर तरफ़ गरीबी, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी खून खराबा, लूटपाट, हत्या, चोरी डकैती, बलात्कार और ना जाने क्या क्या हो रहा है |"
"ऐसी विसंगतियाँ और बीमारियाँ तो देवीय प्रकोपों से भी संभव हैं|"
"देश की प्रजा त्राहि त्राहि कर रही है | फिर भी बादशाह जनता पर नये नये कर लगा रहा है।"
"यह भी शासन की एक आवश्यकता और मजबूरी है।"
"हमने अपने बुजुर्गों से जो कहावत सुनी है, वह इस माहौल पर सटीक बैठ रही है?"
"कौन सी कहावत?"
"राजा के कर्मों का दंड प्रजा को भुगतना पड़ता है।"
मौलिक लघुकथा -

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सोने की चिडिया - लघुकथा -
"भाई साहब, आपने घनश्याम के साथ अन्याय कर दिया|"
"ऐसा क्या होगया छोटे? साफ़ साफ़ बोल ना|"
"आपके इस फ़ैसले पर सारी बिरादरी और खानदान थू थू कर रहा है|"
"किस फ़ैसले की बात कर रहा है? "
"घनश्याम की शादी का फ़ैसला| ऐसी लडकी आजतक पूरे समाज और रिश्तेदारी में नहीं आयी| ना रंग, ना रूप, पता नहीं घनश्याम जैसे सुंदर,, शिक्षित और प्रोफ़ेसर बेटे के लिये यही लडकी मिली थी आपको|"
"छोटे, कुछ फ़ैसले दिल के बजाय दिमाग से भी लेने पडते हैं| वह लडकी इन्कम टैक्स कमिश्नर है|"
मौलिक लघुकथा

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मंत्री का कुत्ता - लघुकथा -
मेवाराम अपने बेटे की शादी का कार्ड देने मंत्री शोभाराम जी की कोठी पहुंचा। दोनों ही जाति भाई थे तथा रिश्तेदार भी थे। मेवाराम यह देख कर चौंक गया कि मंत्री जी के बरामदे में शुक्ला जी का पालतू कुत्ता बंधा हुआ था।अचंभे की बात यह थी कि शुक्ला और मंत्री जी एक ही पार्टी में होते हुए भी दोनों एक दूसरे के कट्टर विरोधी थे।
मेवाराम को यह बात हज़म नहीं हुई। उसके पेट में गुड़्गुड़ होने लगी।इस राज को जानने को वह उतावला सा हो गया।
आखिरकार चलते चलते उसने मंत्री जी का मन टटोलने की ठान ली,"भाई जी ऐसा लगे है कि यह कुत्ता शुक्ला जी का है?"
मंत्री जी भी पूरे घाघ निकले,"क्यूं भाई, इस पर शुक्ला का नाम छपा है क्या?"
"मैंने उसके छोरे को इसे घुमाते देखा था।"
"देख भाई मेवाराम, आजकल के कुत्ते अब पहले जैसे वफ़ादार नहीं रहे।जो भी उसे बढिया खिलाता है, उसी के लिये दुम हिलाते हैं और भौंकते हैं।"
"बात कुछ पल्ले नहीं पड़ी?"
"शुक्ला उसे दूध रोटी देता था और हम उसे गोस्त खिलाते हैं।"
"लेकिन भाई जी इसके बावजूद भी वह आपके लिये दुम नहीं हिलाये और नहीं भौंके तो?"
"तो साले को गोली मरवा देंगे।"
मौलिक लघुकथा।

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विकास - लघुकथा ---------
दद्दू अखबार पढ़ रहे थे। दादी स्टील के गिलास में चाय लेकर आगयीं,
"सुनो जी, विकास की कोई खबर छपी है क्या?"
"कौनसे विकास की खबर चाहिये तुम्हें?"
"कमाल की बात करते हो आप भी? कोई दस बीस विकास हैं क्या?"
"हो भी सकते हैं। दो को तो हम ही जानते हैं।"
"दो कौन से हो गये। हम तो एक को ही जानते हैं।"
"तुम किस विकास को जानती हो?"
"अरे वही जिसको पूरे प्रदेश की पुलिस खोज रही है।और आप किस विकास की बात कर रहे हो?"
"हम उस विकास की बात कर रहे हैं जिसको पूरे देश की जनता पिछले कई वर्षों से खोज रही है।"
मौलिक लघुकथा -

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बाप - लघुकथा - (पितृ दिवस के उपलक्ष में) ------
सुलेखा दौड़ती हांफ़ती घर में घुसी।
"क्या हुआ बिटिया? क्यों ऐसे हांफ़ रही हो?"

"कुछ नहीं पापा। एक कुत्ता पीछे लग गया था।"
"तो इसमें इतने परेशान होने की क्या बात है? तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो।"
"पापा आप नहीं समझोगे।ये दो पैर वाले कुत्ते बहुत गंदी फ़ितरत वाले होते हैं।"
"दो पैर वाले कुत्ते? तुम ये क्या ऊल जलूल बोल रही हो।"
तभी सुलेखा का भाई सूरज हाथ में हॉकी लेकर बाहर की ओर लपका,"अरे बेटा सूरज इतनी रात को यह हॉकी लेकर.......?"
"पापा मैं उस कुत्ते को सबक़ सिखा कर अभी आता हूँ।"
सूरज और सुलेखा के पिता असमंजस और बेचैनी में चहल कदमी करने लगे| वे कुछ सोच और समझ पाते तब तक सूरज वापस भी आगया।
हॉकी के ऊपरी सिरे पर खून लगा हुआ था।
"ये क्या कर डाला तुमने सूरज? कल तुम्हें सरकारी नौकरी ज्वॉइन करनी है और आज? अभी थोड़ी देर में पुलिस आयेगी।"
"पापा मैं रोज रोज मेरी बहिन की तक़लीफ बर्दास्त नहीं कर सकता।"
"मगर बेटा यह तरीका माकूल नहीं है।तुमने तो अपनी ही जिंदगी दॉव पर लगा दी।"
"पापा मुझे जो उचित लगा, कर दिया।"
"ठीक है, अब जो मुझे करना है, करने दो।"
"अरे पापा , आप इस उम्र में क्या करोगे?"
"बेटा अभी इतना भी बूढ़ा नहीं हूँ। लाओ अपनी ये कमीज मुझे दे दो और तुम अंदर घर पर ही रहना।"
बूढ़ा बाप बेटे की कमीज पहन कर और खून से सनी हॉकी लेकर थाने चला गया।
मौलिक लघुकथा

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फांस - लघुकथा -
"अरे शुक्ला साहब आप यहाँ? मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा अपनी आँखों पर।"
"विनोद बाबू, जीवन में कभी कभार अनहोनी भी हो जाती है।"

"लेकिन सर, आपका तो महल जैसा बँगला है।केवल चार प्राणी।आप पति पत्नी और बेटा बहू।"
"विनोद बाबू, रिश्तों में खटास आ जाय तो महल भी छोटे पड़ जाते हैं।"
"क्या बात कर रहे हैं सर? आपका तो पूरा परिवार उच्च शिक्षित है।आप भी बड़े सरकारी अधिकारी थे तो मैडम भी शिक्षिका।बेटा भी डायरेक्टर है। उसे तो कंपनी मकान भी दे रही थी।लेकिन उसने इसीलिये मकान नहीं लिया कि वह बूढ़े माँ बाप को अकेले नहीं छोड़ना चाहता था।"
"विनोद बाबू नसीब बदलते देर नहीं लगती।"
"सर कब से हैं यहाँ? आज पहली बार देखा| मुझे तो करीब तीन साल हो गये।"
"अभी पिछले रविवार को ही आया था।"
"सर प्लीज बताइये ना, ऐसा क्या हुआ अचानक कि आपको वृद्धाश्रम में शरण लेनी पड़ी?"
"विनोद बाबू घर की बात घर से बाहर जाते ही बात का बत्तंगड़ बन जाता है।"
"सर मैं तो आपके घर का ही बंदा हूँ।आफ़िस में भी आपके साथ काम किया है।आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं।"
"भाई विनोद बुरा मत मानना, भरोसा शब्द से मेरा तो भरोसा ही उठ गया।"
"सर आपके दिल पर कोई गहरी चोट लगी है।बतायेंगे नहीं तो अंदर ही अंदर घुटते रहेंगे।सर बताने से मन हल्का हो जायेगा।"
"तुम ज़िद करते हो तो बताता हूँ लेकिन यह वादा करो कि यह बात तुम्हारे होठों से बाहर नहीं आनी चाहिये।"
"सर वादा पक्का वादा।"
"पिछले रविवार का किस्सा है। मैं सुबह किचन में अपने लिये चाय बना रहा था।नौकर चाकर तो सब आठ नौ बजे आते हैं। बहू भी किसी काम से किचन में अंदर आयी और एक स्टूल पर चढ़ कर टाँड़ से कुछ उतारने लगी।मुझसे बोली,"बाबूजी थोड़ा स्टूल पकड़ लीजिये, हिल रहा है।मैंने स्टूल पकड़ लिया।अगले ही पल बहू चीखते हुए मेरे ऊपर गिर पड़ी।मैं भी गिर पड़ा।बहू की चीख सुन कर मेरी पत्नी और बेटा भी दौड़ कर आ गये।उन लोगों के आते ही बहू मेरे ऊपर से उठ कर भाग गयी।मेरी पत्नी और बेटा मुझे संदेह पूर्ण नज़रों से घूर रहे थे।दोनों ने मेरी दलीलों को कोई तवज्जो ना देकर सुना अनसुना कर दिया| घर में पूरे दिन अनबोला पसरा रहा।ऊपर से बहू का रहस्य मय तरीके से चुप्पी साध लेना। मजबूरन शाम होते होते मैंने वृद्धाश्रम आने का निर्णय ले लिया।"
मौलिक लघुकथा

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उधार की जिंदगी - लघुकथा -
"ए जी सुनते हो , ऐसे कितने दिन चलेगा? दो दिन होगया चूल्हा नहीं जला। इधर उधर से जो मिल गया रूखा सूखा उसी को खा पीकर काम चला रहे हैं।"
"अरे भागवान तू ही बता क्या करूं? थोड़ा बहुत जो भी, मुफ़्त का राशन पानी मिल रहा है |उसी से काम चला?"
"यह तो तुम भी जानते हो कि वह राशन पांच प्राणियों के लिये पूरा नहीं पड़ता।"
"मालूम है लेकिन उपाय क्या है।काम धंधा चौपट है।तुम्हारा भी घरों का झाड़ू पोंछा बर्तन का काम छूटा हुआ है।"
"मैं कुछ कड़वी बात बोलूं?"
"हाँ बोल ना, कोई काम की बात है क्या?"
"मैं सोचती हूं कुछ खर्चा कम कर दिया जाय।"
"अरे पगली अपना खर्चा तो पहले ही इतना कम है और क्या कम करेंगे।"
"गौर से सोचो, अभी भी कुछ गुंजाइश है?"
"मुझे तो ऐसा नहीं लगता? बच्चे दोनों बेचारे हर समय छोटी छोटी चीजों के लिये तरसते रहते हैं।हम दोनों भी रूखी सूखी डबल रोटी पानी से गुटक कर काम चला रहे हैं।कुछ भी कम नहीं हो सकता।"
"और बाबा का खर्चा?"
"बाबा का कौनसा बड़ा खर्चा है?"
"दिन में चार पांच बार चाय, ब्रेड बिस्कुट और दवाईयां।हम सब में सबसे अधिक उनका ही खर्चा है।और सब उधार आ रहा है| चाय ब्रेड बिस्कुट सब सामने वाले ढावे से आता है। कैसे चुकायेंगे?"
"ये बात तो सही है लेकिन इसे भी तो कम नहीं कर सकते ?"
"टपका देते हैं।"
"क्या बकती हो? कितनी बदनामी होगी। लोगों से क्या कहेंगे?"
"रेत की कच्ची दीवार थी। आँधी आयी, ढह गयी।"
तेज वीर सिंह "तेज"
पूना महाराष्ट्र

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प्रेम पत्र - लघुकथा -
आज वीरेंद्र पिता की मृत्योपरांत तेरहवीं की औपचारिकतायें संपन्न करने के पश्चात पिताजी के कमरे की अलमारी से पिता के पुराने दस्तावेज निकाल कर कुछ काम के कागजात छाँट रहा था।
तभी उसकी नज़र एक गुलाबी कपड़े की पोटली पर पड़ी।उसने उत्सुकता वश उसे खोल लिया।वह अचंभित हो गया।वह जिस पिता को एक आदर्श और सदाचारी पिता समझता था उनकी चरित्र हीनता का एक दूसरा ही चेहरा आज उसके सामने था।उस पोटली में पिता के नाम लिखे प्रेम पत्र और एक सुंदर सी महिला के साथ तस्वीरें थीं।
वीरेंद्र के चेहरे पर पिता के प्रति क्रोध और घृणा के भाव तेजी से उभर रहे थे।
उसी वक्त वीरेंद्र की माँ ने कक्ष में प्रवेश किया।वीरेंद्र ने पहले तो उस पोटली को छिपाने की असफल कोशिश की लेकिन जब उसे लगा कि माँ ने सबकुछ देख लिया है तो अब सब कुछ उजागर कर देना ही ठीक है।
"माँ,बापू ने हम लोगों के साथ बहुत बड़ा धोखा किया।खासतौर पर तुम्हारे साथ।"
"कैसी ऊलजलूल बात कर रहे हो वीरेंद्र।आज के समय में तुम्हारे पिता जैसा निष्ठावन और कर्तव्य परायण व्यक्ति मिलना मुश्किल ही नहीं असंभव है।"
"आज से पहले मेरी भी सोच यही थी माँ लेकिन आज उनका एक घिनौना रूप मुझे देखने को मिला है।"
"कुछ तो शर्म करो वीरेंद्र।अपने स्वर्गवासी पिता के लिये ये कैसी भाषा प्रयोग कर रहे हो?"
"यह देखो माँ।यह है बापू का असली चेहरा।उनके जीवन में कोई और भी स्त्री थी।"
"यह सच है। लेकिन यह हमारी शादी से पूर्व का सच है।"
"क्या मतलब है आपका माँ?"
"वीरेंद्र, तुम्हारे पिता ने मुझसे कभी कुछ नहीं छिपाया।वह किसी से प्रेम करते थे लेकिन उन्होंने मुझसे शादी अपने परिवार के दबाव में की थी।उन्होंने यह खत और फोटो शादी की पहली ही रात मुझे दे दिये थे और कहा था कि इन्हें जला देना। मेरे जीवन से यह प्रसंग समाप्त। और वे उस पर कायम भी रहे।"
"पर आपने जलाये क्यों नहीं माँ?"
"मैं इतना साहस कभी भी एकत्र नहीं कर सकी।"

मौलिक लघुकथा

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धरोहर - लघुकथा -
"सुनो जी, आज अपनी गुड्डी चार साल की हो गयी।वह सुबह से आज जलेबी खाने की जिद कर रही है। अपनी सहेलियों को भी जन्मदिन पर जलेबी खिलाना चाहती है।"
"सुमन, तुम तो जानती हो शहर के हालात।काम धंधा सब बंद है।घर में फूटी कौड़ी भी नहीं है।"
"लेकिन उस छोटी बच्ची को कैसे समझाऊं कि घर में जहर खाने को भी पैसे नहीं है।"
"सुमन, बड़ी मुश्किल से लाला से एक एक किलो दाल चावल उधार माँग कर लाया हूँ।"
"सुनो जी, एक बात बताओ, तुमने इस देश के लिये इतने पदक जीते। बदले में क्या मिला? सरकार एक छोटी सी नौकरी भी नहीं दे सकी।"
अचानक श्रीधर को जैसे कुछ याद आया, वह मंदिर वाले आले में से एक छोटी सी सुनहरे कपड़े की थैली उठाकर बाहर निकल गया।
सुमन आश्चर्य से उसे पीछे से पुकारती रही। मगर वह उसकी आवाज़ को अनसुनी करके चला गया।सुमन घर की देहरी पर खड़ी उसे जाते हुए बेबस सी देखती रही।
दिन ढले श्रीधर लौटा।दोनों हाथों में खाने के सामान थे।एक बड़े से डिब्बे में ढेर सारी गरमा गरम जलेबियाँ थीं।
"यह सब सामान कैसे मिला?"
"पहले गुड्डी और उसकी सहेलियों को गरमा गरम जलेबी खिलाओ।फिर पूछना यह सब।"
गुड्डी और उसकी सारी सहेलियाँ जन्मदिन को उत्सव की तरह खुशी खुशी मनाने में लग गयीं।मगर सुमन अभी भी इसी उधेड़्बुन में उलझी थी कि आखिर इतने पैसे ये कहाँ से लाये।
मन पर नियंत्रण नहीं हुआ तो उसने फिर वही सवाल दाग दिया,"बताओ ना, यह सब कैसे हुआ?"
"यह तुम्हारे ही कारण हुआ।
"क्या मतलब?"
"जैसे ही तुमने मुझे मेरे पदकों की याद दिलायी। बस सब संभव हो गया।"
"तो क्या तुमने पदक बेच दिये?"
"नहीं गिरवी रख दिये।"
"हाय राम, यह क्या गज़ब कर दिया तुमने, वही पदक तो इस घर में एक ऐसी धरोहर थे जिसे तुम सबको बड़े गर्व से दिखाते थे।"
"अरे पगली, उधर देख, गुड्डी के चेहरे पर जो खुशी है इस वक्त, वह मेरे लिये दुनियाँ की सबसे बड़ी धरोहर है।"
मौलिक लघुकथा -

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संस्कार - लघुकथा -
"रोहन यह क्या हो रहा है सुबह सुबह?"
"भगवान ने इतनी बड़ी बड़ी आँखें अपको किसलिये दी हैं।"
रोहन का ऐसा बेतुका उत्तर सुनकर मीना का दिमाग गर्म हो गया। उसने आव देखा न ताव देखा तड़ातड़ दो तीन तमाचे धर दिये रोहन के मुँह पर।सात साल का रोहन माँ से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं कर रहा था।वह फ़ट पड़ा और जोर जोर से दहाड़ मार कर रोने लगा। उसका बाप दौड़ा दौड़ा आया।
रोहन को गोद में उठाकर पूछा,"क्या हुआ?"
"माँ ने मारा।"
रोहन के पिता ने मीना को जलती निगाहों से घूरते हुए पूछा,"मीना,उसके दोनों गाल लाल हो रहे हैं।इतने छोटे बच्चे को ऐसे मारता है कोई?"
"मैं कोई नहीं हूँ, उसकी माँ हूँ। उसकी गलती को सुधारने का मेरा अधिकार है।"
"बच्चे को समझाकर भी सुधारा जा सकता है।"
"उसकी गलती मार खाने लायक ही थी।"
"ऐसा क्या किया था? मुझे भी तो पता चले।"
"पूछलो अपने लाड़ले से|"
दोनों पति पत्नी इसी बहस में उलझे थे कि रोहन बोल उठा,"माँ,कल दादी ने आपसे पूछा था कि मीना बहू क्या कर रही हो।तब आपने भी तो यही उत्तर दिया था कि भगवान ने ये बटन सी आँखें किसलिये दी हैं।"
मौलिक लघुकथा -

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