वो कुछ सांझ सी यूं लगी मुझे,
कुछ गुस्साई सी,कुछ मुरझाई सी, कुछ शांत सी,
कुछ उलझी सी,,,, वो अनसुलझी पहेली सी।
फिर जब मिला उस सांझ से सांझ के बखत,
बांछे खोल के जब वो मिली मुझसे के लगा
सांझ मिली भोर से भोर के बखत फिर वो सांझ भोर सी हो गई और कुछ यूं लगी मुझे,
कुछ अलसाई सी,कुछ खिलखिलाई सी, कुछ रंगीन सी,
कुछ ख़्वाब लिए बैठी वो, लेती हुई अंगड़ाई सी,
ऐसा लगा मुझे की बस भोर के ही इंतज़ार में थी वो रात भर वो सांझ सी कुछ यूं लगी वो मुझे।
के हर शाम कुछ सांझ सा हो जाता हूं में की हर सुबह उसी की तरह भोर सा हो जाऊं में।
के हम एक हो जाए।।।