गिरते झड़ते पत्तो के बीच
लहलहाती है गेंहू की बालियां
चटक पिला रंग खिला है सरसो का
उतावला है पलाश
खिलने को आतुर है टेसू भी
महुआ भी बिखेरेगा महक़
मद मयी होगा वन सारा
नये बने है छत्ते मधु के भी
भिनभिना उठी है पवन यहाँ
कह रही प्रकृति लो बसन्त आ गया !
आला चौहान"मुसाफ़िर"