प्रशांत किशोर और बिहार: एक नई राजनीति का इंतज़ार!
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बिहार की सियासत अक्सर एक पुराने गाने की तरह लगती है—जाति, गरीबी, पलायन... यही सुर, यही ताल, यही बातें। दशकों से चल रहा यह राग अचानक एक नई आवाज़ से टकराया है। नाम है—प्रशांत किशोर। वही, जिन्हें कभी 'चुनावी जादूगर' कहा जाता था। जिनकी रणनीति ने प्रधानमंत्री बनाया, मुख्यमंत्री बचाए और नए सितारे गढ़े। आज वही जादूगर, खुद मैदान में हैं। अपने 'जन सुराज' के झंडे के साथ। सवाल सबके मन में है: क्या यह सिर्फ एक नया प्रयोग है, या वह पुराने गाने की धुन बदल देंगे?
मास्टरमाइंड अब मैदान में
प्रशांत किशोर का CV देखें तो लगता है मानो उन्होंने भारतीय राजनीति के बड़े-बड़े दाव-पेच खुद लिखे हों। 2014 में मोदी की जीत, 2015 में नीतीश का कमबैक, आंध्र में जगन की धूम और 2021 में दीदी की शानदार वापसी—हर मोड़ पर उनकी छाप थी। वह पर्दे के पीछे के वह खिलाड़ी थे जो चालें चलते थे। आज, वह पर्दे के सामने हैं। एक ऐसा खिलाड़ी जो अपने लिए खेल रहा है। बस फर्क इतना है कि अब उनके पास कोई 'क्लाइंट' नहीं, बल्कि एक 'सपना' है।
बिहार: वह जमीन जहाँ जात का पेड़ गहरा है
बिहार की राजनीति की जड़ें जाति की धरती में कितनी गहरी हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। यहाँ का वोट अक्सर यादव, मुसलमान, दलित, कोईरी, कुर्मी... इन्हीं टोकरियों में बंटा होता है। हर पार्टी का एक खास समीकरण होता है, एक खास जमात। प्रशांत किशोर इसी समीकरण को तोड़ने की बात करते हैं। उनका मंत्र है— "अब नहीं चलेगा जात का जादू, अब चलेगा काम का जादू।" यह नारा दिमाग में घुस जाता है, दिल को छू लेता है। मगर सवाल यह है कि क्या यह दिल, जात के बंधन तोड़ पाएगा? यही सबसे बड़ी परीक्षा होगी।
प्रशांत किशोर की 'जन सुराज' पदयात्रा को सिर्फ एक चुनावी दौरा न समझें। यह एक तरह का 'लाइव प्रोजेक्ट' है। हज़ारों किलोमीटर चलकर, हज़ारों लोगों से मिलकर, उनकी समस्याएँ सुनकर एक 'जनता का घोषणापत्र' तैयार करना। यह विचार पुरानी गांधीवादी पदयात्राओं जैसा लगता है, लेकिन इसकी आत्मा में आधुनिक टेक्नोलॉजी और डेटा का इस्तेमाल है। अगर यह मॉडल काम कर गया,तो यह देश में पहली बार होगा जब जनता की आवाज़ सीधे सरकार के एजेंडे में तब्दील होगी। और अगर नहीं, तो यह साबित हो जाएगा कि बिहार में भावनाएँ, तर्क से ज्यादा ताकतवर हैं।
मैदान में पुराने शातिर खिलाड़ी मौजूद हैं:
· नीतीश कुमार: 'विकास पुरुष' का तमगा अब मद्धिम पड़ा है, सत्ता के लिए उनके फैसलों पर सवाल उठते हैं।
· तेजस्वी यादव: युवा उर्जा तो हैं, लेकिन 'परिवारवाद' और पुराने भ्रष्टाचार के आरोपों की छाया से अभी आज़ाद नहीं हुए।
· भाजपा: उनका खेल मोदी की लोकप्रियता और राष्ट्रीय मुद्दों पर टिका है।
इस पुराने खेल में, PK का दांव नया है। न कोई जातीय समीकरण, न कोई राजनीतिक वंशवाद। बस एक विचार— काम की राजनीति का। यही उनकी सबसे बड़ी ताकत है, और शायद, सबसे बड़ी चुनौती भी।
अगर प्रशांत किशोर का यह दांव चल गया, तो बिहार ही नहीं, देश की राजनीति की बुनियाद हिल सकती है। वोट की भाषा बदल सकती है—जाति नहीं, काम। और अगर नहीं चला, तो यह मानना पड़ेगा कि भारतीय लोकतंत्र का फार्मूला अभी भी वही है: 'जात पर वोट, विकास की उम्मीद, और सत्ता के लिए समझौता'।
प्रशांत किशोर सिर्फ एक नेता नहीं, एक 'आईडिया' हैं। बिहार की यह जंग, सिर्फ सत्ता की जंग नहीं है। यह दो विचारों की लड़ाई है— पुराने बनाम नए का, जाति बनाम काम का, वंशवाद बनाम विचारवाद का। अब बस इंतज़ार है उस एक नतीजे का, जो तय करेगा कि यह नई कहानी, बिहार के लिए एक नई सुबह लाएगी या फिर इतिहास के पन्नों में एक कोरे पन्ने की तरह दर्ज होकर रह जाएगी।
आर के भोपाल