डॉक्टर और धर्मगुरु — लक्षण बनाम जड़
डॉक्टर:
डॉक्टर रोगी को देखकर सबसे पहले उसके लक्षण पकड़ता है।
खांसी है, दर्द है, बुखार है — तो दवा देता है।
उसका उद्देश्य है रोगी को तुरंत राहत देना।
लेकिन रोग की जड़ कहाँ है — यह उसका काम नहीं।
क्योंकि रोग की जड़ हमारे समाज, जीवनशैली, आचार, मनोवृत्ति और पर्यावरण में छिपी होती है।
डॉक्टर वहाँ तक नहीं जा सकता, उसका कार्य सिर्फ रोग का अस्थायी प्रबंधन करना है।
धर्मगुरु / आध्यात्मिक नेता:
वे भी यही करते हैं।
लक्षण देखते हैं — किसी को दुख है, किसी को भय है, किसी को लोभ है, किसी को असुरक्षा है।
और फिर वे मंत्र, साधना, पूजा, प्रवचन देकर कुछ समय की राहत दे देते हैं।
लेकिन वे भी रोग की जड़ तक नहीं पहुँचते।
👉 फर्क यही होना चाहिए कि सच्चा वेदान्ती, सच्चा ऋषि सिर्फ लक्षण नहीं पकड़ता — वह सीधे जड़ को पकड़ता है।
और जड़ क्या है?
अज्ञान, अहंकार, माया से पहचान और "मैं" की भ्रांति।
यदि वेदांत केवल फैशन या व्यापार होता,
तो आज हमारे हाथों में उपनिषद, गीता और वेद कभी नहीं आते।
क्योंकि सत्य कभी भी व्यापार का विषय नहीं हो सकता।
सत्य हमेशा दान है, अनुग्रह है।
आज की स्थिति यह है कि डॉक्टर, वकील और धर्मगुरु — सब एक ही कतार में खड़े हैं।
क्योंकि सबने सेवा को धंधा बना लिया है।
जहाँ धंधा है, वहाँ सच्ची खोज की कोई जगह नहीं है।
डॉक्टर दोषी नहीं है, क्योंकि उसका काम है तत्काल रोग को सँभालना।
धर्मगुरु भी दोषी नहीं हैं, क्योंकि वे जितना जानते हैं, उतना ही बाँटते हैं।
लेकिन अंतर यही है:
यदि कोई स्वयं को "वेदांती" या "आध्यात्मिक" कहता है, तो उसे केवल लक्षण नहीं — जड़ तक ले जाना चाहिए।
अन्यथा वह भी उसी कतार में खड़ा है, जहाँ सेवा व्यवसाय बन जाती है।
सत्य का धर्म कभी व्यवसाय नहीं हो सकता।
सत्य केवल आत्मा की पुकार है।
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🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲