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बर्गद का संदेश
मैं चली थी राह अजनबी,
मन में था बस एक प्रश्न—
कैसे मिलूँ मैं अपनी माँ से,
कैसे पाऊँ उसका स्पर्श।
राह में खड़ा था बर्गद का पेड़,
उसकी आँखें चमक रही थीं,
उसके होंठ हिल रहे थे धीरे-धीरे,
वो जैसे मुझे पुकार रहा था।
मैंने कहा —
“मुझे अपनी माँ के पास जाना है।”
पेड़ मुस्कराया,
अपनी जड़ों के आँगन में जगह दी,
और मुझे अपने भीतर बैठा लिया।
क्षण भर में सब बदल गया—
मैं लहरों की आवाज़ सुनने लगी,
नमक-सी महक हवा में घुली थी,
और मैं पहुँच गई समुद्र के किनारे।
वहाँ…
माँ खड़ी थी बाहें फैलाए,
आँखों में प्रेम का अथाह सागर,
उसकी गोद में समाते ही
मेरा मन शांत हो गया।
बर्गद, समुद्र और माँ—
तीनों मिलकर बता रहे थे—
“प्रकृति ही है असली माँ,
और माँ ही है सृष्टि की जड़।”