English Quote in Book-Review by Kishore Sharma Saraswat

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पुस्तक समीक्षा
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पत्थर में देवत्व गढ़ने वाली एक अकेली और निरीह स्त्री के संघर्ष का बेजोड़ कथानक जिसमें वह ‘हार’ (पराजय) को ठोकर मारकर, सफलता के झंडे गाड़ती है और ‘हार’ (विजय माला) को गले में पहनकर ही दम लेती है-

माणक तुलसीराम गौड़
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साहित्य जगत में श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वत’ एक जाना-माना और पहचाना हुआ नाम है। इनके प्रकाशित उपन्यासों में क्रमशः ‘मेरा देश’, ‘बड़ी माँ’, ‘पुनर्जन्म एक यथार्थ’, ‘जीवन एक संघर्ष’ व ‘द ग्रैटमदर’ है। जिनमें जीवन एक संघर्ष तो हिंदी में अब तक का सबसे लंबा उपन्यास का दर्जा पा चुका है। साथ ही समीक्षित उपन्यास ‘बड़ी माँ’ का यह दूसरा संस्करण है जो सन् 2024 में प्रकाशित हुआ। पहला संस्करण 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस उपन्यास को ‘मुंशी प्रेमचंद’ पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।

इस उपन्यास में मैंने पाया कि जब दुःख मनुष्य को चारों तरफ से घेरता है तो पुरुष अपने हथियार डाल देता है, उसकी चूँ बोल जाती है, मगर स्त्री को भगवान ने वह शक्ति दी है जो हारना नहीं जानती। वह सब-कुछ न्यौछावर कर देती है, मगर पराजय नहीं स्वीकारती। जीवन के संझावतों से टकराते हुए वह आगे बढ़ती है, जिसके शब्द कोश में ‘हार’ है लेकिन हार पराजय वाली नहीं बल्कि विजय माला वाला ‘हार’ है, जिसका वरण करके ही या तो वह दम लेती है या फिर वह दम तोड़ देती है।

कथानक ऐसा है जिसमें उपन्यास की नायिका की ईश्वर में आस्था है तो स्वयं में विश्वास भी। प्रकृति की गोद में सोने का सुख है तो उसकी दी हुई वेदना झेलने का दुःख भी। प्राकृतिक आपदाओं के झंझावात हैं तो उनसे मुक्ति दिलाने वाले इनसान भी। जहाँ आदमी को बेचने वाले नर पिशाच हैं तो उनको बचाने वाले नेक इनसान भी। निर्धन और असहाय को घर में आसरा देने वाले भी हैं तो उन्हें दुत्कारने-फटकारने वाले निर्दयी लोग भी। गरीब की अज्ञानता और उसकी मजबूरी पर हँसने-ठहाके लगाने वाले हैं तो उन्हें सांत्वना तथा ढाढ़स बंधाने वाले देवतुल्य जन भी। रोजी-रोटी छीनने वाले दुर्जन हैं तो खाली हाथों को रोजगार देकर उन्हें दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के काबिल बनाने की कूवत प्रदान करने वाले सज्जन भी।

इस उपन्यास का कथानक भी बड़ा रोचक है जिसके अंत तक यह जिज्ञासा बनी रहती है कि अब आगे क्या होगा! अब कैसे होगा!

सफल लेखक वह होता है जो अपनी कृति के नायक या नायिका को पाठक से जोड़ दें अर्थात् उनको एकाकार कर दें। फिर पाठक उसके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख मानने लग जाता है। वह मनोवैज्ञानिक रूप से उसके साथ अपना गठजोड़ इस तरह बाँध लेता है कि उसके यदि ठोकर लगे तो पीड़ा पाठक को होती है। पीड़ा यदि उसे हो तो आँसू पाठक के निकलने लग जाते हैं। मुझे यह कहने में कतई भी अतिशयोक्ति नहीं लगती कि उपन्यासकार इस कसौटी पर खरा उतरा है। उसने यह कलम का जादू सफलता से अपने पाठकों पर किया है।

कथानक के अनुसार लाला दीवानचंद और उसकी धर्मपत्नी कौशल्या के दीर्घ प्रतीक्षा के बाद एक लड़का जन्म लेता है। उसका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से चल रहा था। महकते उपवन में फूलों की तरह वह पल रहा था, मगर फूलों के संग काँटे तो होते ही हैं। एक दिन बाल स्वभाव के वशीभूत हो वह तितलियों का पीछा करते हुए वहाँ से बहुत दूर चला गया और उसी समय नदी में आई बाढ़ में बहकर वह पलक झपकते ही आँखों से ओझल हो गया।

‘जाँको राखे साइयाँ मार सके ना कोई’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए वह बालक जिसे मुन्ना नाम से पुकारते हैं तथा इसी का नाम आगे चलकर ‘देव’ रखा जाता है, घटना स्थल से बहुत दूर झाड़ियों में अटक जाता है जिसे बाढ़ से बहकर लकड़ियों को बीनने आया दंपति मुरली और राम आसरी उसे अपने घर लेकर जाते हैं।

राम आसरी जितनी दयालु, ममतामयी और करुणामयी थी मुरली उतना ही दुष्ट, नशेड़ी और अपराधी स्वभाव का दुर्जन आदमी था।

राम आसरी ने बड़े जतन से उसे दवा-उपचार करके होश में लाई तथा जब वह कहता है कि आप कौन हैं तो वह कहती है- ‘‘मैं तेरी बड़ी माँ हूँ।’’ बस, तब से वह उसकी बड़ी माँ बन गई।

उधर दुष्ट मुरली धोखे से बच्चे को शहर लेजाकर मात्र चार हजार में उसे बेच देता है तथा करनी का फल भोगकर लौटते वक्त रेल से कटकर मर जाता है।

बच्चे के खरीददार तो शातिर अपराधी निकले। वे उससे भीख मंगवाते थे।

एक दिन राम आसरी बच्चे की खोज में शहर जाती है तो बच्चे को भीख माँगते हुए देखती है, उसे पहचान जाती है। उसे बचाने के लिए वह अपनी जान जोखिम में डालकर मालगाड़ी में छिपकर अन्यत्र चली जाती है। यानी चंडीगढ़ पहुँच जाती है। जहाँ पर एक सद्ग्रहस्थी के यहाँ राम आसरी नौकरी कर मुन्ना यानी देव को पढ़ाने लगती है।

उधर पुत्र के असमय काल कवलित होना मानकर देव के माता-पिता को धक्का कहो या सद्मा लगना स्वाभाविक ही था। दुःख से मन विचलित हो जाने से लाला दीवानचंद ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर पत्नी को साथ लेकर अम्बाला अपनी मौसी के पास चले गए तथा अध्यापक की नौकरी करने लगे।

इसी बीच इनका मन बहलाव और साधु संगत करने के उद्देश्य से ऋषिकेष जाना हुआ। वहाँ एक संत ने बताया कि तुम्हारा लापता बच्चा अभी तक जीवित है, सुरक्षित है तथा समय आने पर वह तुम्हें अवश्य मिलेगा।

रोजगार की तलाश में उधर राम आसरी देव को लेकर चंडीगढ़ आकर जीविकोपार्जन के लिए सब्जी की दुकान शुरू करनी पड़ी। इस तरह राम आसरी ने अपना सब-कुछ उस बालक देव को पढ़ाने-लिखाने, उसे सुसंस्कारित बनाने तथा उसे बहुत बड़ा आदमी बनाने की ठान रखी है। इस सपने को सच करने के लिए उसने अपने आप को गला रखा है, समर्पित कर रखा है। सच ही कहा गया है कि मनुष्य में देवत्व गढ़ने का काम केवल माताएँ ही कर सकती हैं, यानी नारियाँ।

उधर मन नहीं लगने से लाला दीवानचंदजी तथा कौशल्या अम्बाला अपनी मौसी को छोड़कर चंडीगढ़ आ गए। यहाँ उस स्कूल की शाखा थी अतः नई नौकरी के लिए पापड़ नहीं बेलने पड़े। चूँकि लालाजी अपने लापता पुत्र को भूले नहीं थे अतः वे बच्चों में अपने उस पुत्र की छवि को पाते थे। देव गरीब बच्चा भी था तथा मेधावी भी। अतः वह दीवानजी का सबसे चहेता बच्चा बन गया।

यहाँ उपन्यासकार का चमत्कार देखिए, पढ़ने वाला बेटा और पढ़ाने वाला पिता, मगर दोनों ही इस बात या तथ्य से अनजान। वाह!

बच्चा जब सातवीं कक्षा में आता है तब उसकी बड़ी माँ यानी राम आसरी गंभीर बीमारी में जकड़ जाती है। मानवता के नाते दीवानचंदजी ने राम आसरी को अच्छे डॉक्टर को दिखाया। उसके अच्छे उपचार हेतु स्तरीय अस्पताल में भर्ती करवाया। आदमी परिश्रम कर सकता है। पैसे खर्च कर सकता है, मगर इलाज तो चिकित्सक ही करते हैं। साथ ही चिकित्सक भी इलाज ही करते हैं, उपचार तो ऊपर वाला ही करता है।

राम आसरी को लगा कि उसका अब अंत निकट है तो देव का हाथ छोड़ने से पहले उसका हाथ उसके असली माता-पिता को पकड़ा दिया। इस तरह बड़ी माँ अपना जीवन हार गई, मगर अपनी प्रतिज्ञा जीत गई। उसने ही तो कहा था- ‘‘मुन्ना, मरने से पहले मैं तुझे माँ से जरूर मिलवाऊँगी।’’

पुस्तक के कुछ उद्धरण हमें बहुत ही प्रभावित करते हैं-

‘आजकल के लड़के किसी के मन की क्या जाने ? पैसा जब पास होता है तो वह इंसान से इंसान की दूरी बना देता है।’ पृष्ठ 134

माँ- ‘‘मेरे मुन्ना को मुझसे मिला दे। वह अभागा एक माँ को तो पहले ही खो चुका है और अब उसे दूसरी माँ से भी दूर मत कर।’’ पृष्ठ 142

‘‘संतान को जन्म नहीं दिया, फिर भी नारी हृदय माँ, मातृत्व के प्रेम, वात्सल्य और वियोग की पीड़ा से राम आसरी की आँखें भर आईं। पृष्ठ 142

‘‘भगवान में आस्था का दूसरा नाम ही धर्म है और उस परमात्मा में आस्था ही मनुष्य को बड़ी से बड़ी विपत्तियों को सहन करने की शक्ति प्रदान करती है। पृष्ठ 150

‘‘हाँ बेटा, माताएँ होती ही ऐसी हैं। माँ को दुनिया में अगर कोई सब से सुंदर और प्यारा लगता है तो वह है उसका बच्चा। इंसान तो समझदार है, परंतु पशु-पक्षी भी अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हैं। उनकी सलामती के लिए अपनी जान तक भी दे देते हैं।’’ पृष्ठ 180

‘‘पैसा तो हाथ का मैल होता है। तू अगर पढ़-लिखकर बड़ा बन गया तो पैसे ही पैसे हैं।’ पृष्ठ 181

‘‘अपना बेटा नहीं है तो क्या हुआ! क्या यह जरूरी है कि कोख से जन्म लेकर ही संतान का माँ से सम्बन्ध बनता है ? नहीं, हरगिज नहीं। जन्म लेना और जन्म देना अलग बात है और इस पवित्र बंधन को निभाना अलग बात है। पृष्ठ 194

‘‘सर, डॉक्टर को तो दिखाया था। अब पैसे नहीं हैं, जितने घर में पैसे थे सारे खर्च हो चुके हैं।’’

‘‘ओह! आचार्यजी के मुँह से यह शब्द अनायास ही निकल गया। उन्होंने अपनी जेब को टटोला और उसमें से एक सौ का नोट निकालकर मुन्ना को देते हुए बोले- ‘‘ले बेटा, इससे अभी थोड़ा काम चलाओ।’’ पृष्ठ 216

पहली बार दीवानचंदजी ने अपनी औलाद को बेटा कहा, मगर वे अभी तक आपसी रिश्तों से अनजान थे। यही चमत्कार है इस उपन्यास का।

‘‘संसार बहुत बड़ा है आचार्यजी, किस-किस का दुःख बाँटोगे। कौशल्या ने कहा। पृष्ठ 220

‘‘समय बहुत थोड़ा है। तू भागकर मास्टरजी को बुला ला। मुझे कुछ नहीं होगा। तेरी बड़ी माँ पत्थरों से खेलकर पत्थर बन चुकी है।’’ पृष्ठ 222

इस तरह ‘बड़ी माँ’ एक सुखांत उपन्यास है जो उपन्यास के आवश्यक तत्वों यथा कथावस्तु, पात्र, संवाद, देशकाल और वातावरण, भाषा-शैली और अपने उद्देश्य में खरा उतरने में सफल रहा है। अपनी रोचकता और सार्थकता के कारण यदि इस पर कोई फिल्म बने तो वह अवश्य सफल होगी, ऐसा मेरा मानना है।

मानवीय पक्षों को गंभीरता से उजागर करता एक बेजोड़ उपन्यास सृजन पर मैं उपन्यासकार श्री किशोर शर्मा ‘सारस्वतजी’ का हार्दिक अभिनंदन करता हूँ तथा भविष्य में भी ऐसे श्रेष्ठ उपन्यास सृजन हेतु शुभकामनाएँ देता हूँ।

मुझे पूर्ण विश्वास है कि साहित्य जगत इस कृति का हृदय से स्वागत करेंगे।
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पुस्तक का नाम - बड़ी माँ
विधा - उपन्यास
उपन्यासकार - किशोर शर्मा ‘सारस्वत’
मो. नं. - 90502 23036
समीक्षक - माणक तुलसीराम गौड़
मो. नं. - 87429 16957
प्रकाशक - के. वी. एम.
प्रकाशन वर्ष - 2005
द्वितीय संस्करण 2024
मूल्य - 425 रुपये मात्

English Book-Review by Kishore Sharma Saraswat : 111986156
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