"वो जो मेरे मौन में रहती है"
वो,
जो हर सुबह
किसी और की दुनिया सँवारने निकलती है,
और हर शाम
किसी और की थकान अपने भीतर समेट लेती है,
उसे मैं
हर दिन, हर पल
बिना मांगे, बिना कहे,
पूजता रहा हूँ।
वो,
जो मुझसे उम्र मेॅ आगे चली,
और मैं…
उसी दूरी में रहकर
उसकी परछाईं से दोस्ती करता रहा।
मैंने कभी उसके नाम को
अपने अधरों तक नहीं आने दिया,
बस अपने हृदय में
एक दीपक की तरह
जलाए रखा—
टिमटिमाता, शांत,
पर बुझा नहीं कभी।
वो नहीं जानती,
कि कोई है—
जो हर रोज़
उसकी खामोश उपस्थिति में
अपने भीतर कुछ गिरा देता है—
एक साँस, एक उम्मीद, एक गीत।
मैंने प्रेम नहीं माँगा,
बस उसकी उपस्थिति को
अपने जीवन की कविता बना लिया—
एक ऐसी कविता,
जो कभी उसके पास नहीं पहुँची,
पर हर शब्द उसी की साँसों से महकती है।
अगर कभी
ये शब्द उसके पाँव के पास गिरें—
तो वो समझ जाए
कि यह कोई प्रेम निवेदन नहीं,
बस एक आत्मा का प्रणाम है,
जो जन्मों से उसका है,
और जन्मों तक रहेगा—
मौन, मधुर, मूक…
पर अटल।
-पवन कुमार शुक्ल