सरसी /सोरठा छंद
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कैसे पूजा हो माँ तेरी, या कि करूँ मैं पाठ।
जाने कैसी बुद्धि हमारी, उम्र हो रही साठ।
माँ इतना वरदान मुझे दो, हो मेरा उद्धार।
हाथ शीष पर रख दो मेरे, समझूँ जीवन सार।।
उलट-पुलट सब करते जाना, यही समय की नीति।
सत्य बात को किसने माना, दुनिया की है रीति।
जन- मानस कब तक जागेगा, पता नहीं है यार।
खेल रहे सब बड़े मजे से, बस दो दूनी चार।।
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सोरठा छंद- कहें सुधीर कविराय
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ईश
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हो जाये उद्धार, ईश कृपा हम पर करें।
चलता रहे व्यापार, जैसी मर्जी आपकी।।
हाथ हमारे शीश, मुझे पता है ईश जी।
आज बना वागीश, महिमा सारी आपकी।।
है अटूट विश्वास, होता ईश्वर पर जिन्हें।
नहीं बिखरती आस, ऐसे लोगों की कभी।।
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विविध
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आप सभी हम आज, कविता पढ़ने आ गये।
पूरण हों सब काज, कृपा राम जी की मिले,
कविगण आये आज, प्रभु राम दरबार में।
अपने सुर अरु साज, अपने सुर अरु साज।।
मत करिए अभिमान, नियमों का पालन करें।
कितना किसको ज्ञान, वरना दुनिया जानती।।
करता रहता वास, धोखा जिनके चित्त में।
करते हैं उपहास, उसका कितने लोग नित।।
पायें निज का मान, लोभ मोह से दूर रह।
सबसे सुंदर ज्ञान, यही बड़ा है धर्म का।।
जाने सकल जहान, सद्गुरु की महिमा बड़ी।
जो लेते संज्ञान, फिर भी कुछ ही लोग हैं।।
रखते सबका आप, लेखा जोखा कर्म का।
पाप, पुण्य संताप, छूट नहीं देते कभी।।
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सुधीर श्रीवास्तव