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Sudhir Srivastava

Sudhir Srivastava

@sudhirsrivastava1309
(18)

कल हमारा है!
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कल हमारा था या नहीं
इससे बाहर निकलिए
नयी उर्जा, नयी सोच का
नव जागरण करिए।
सकारात्मक भाव से
बेहतर की कल्पना कीजिए,
निराश होकर मत बैठिए।
उठिए ! आत्मविश्वास जगाइए
मुस्कुराइए, बीती बातों को भूल जाइए
बेहतर कल की बात सोचिए
फिर देखिए सब कुछ कैसे बदलता है
गहन अंधेरा कैसे छँटता है
जो लग रहा है, कल भी हमारा नहीं है
वो कल कितनी सहजता से
हमारा आपका अपना होता है
कल हमारा है! का सपना साकार होता है।

सुधीर श्रीवास्तव

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कहें सुधीर कविराय - चुनावी दोहे
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गली-गली दिखने लगे, नेताओं के झुंड ।
गिन तो तुम सकते नहीं, कहो चुनावी मुंड।।

नेताओं के फिर बजे, चिकने थोथे गाल।
आज चुनावी दाँव में, खिचड़ी कंकड़ दाल।।

देना इनको है नहीं , वादे ठेलमठेल।
वादा इनका जानिए, महज चुनावी खेल।।

चलो चुनावी खेल में, हम भी खेलें खेल।
हम सब भी मतदान में, डालें नयी नकेल।।

बस चुनाव तक दीखते, नेता हमको रोज।
मिलते हमको ये नहीं, मम चुनाव की खोज।।

नेता जी की हो गई, ऐसी मोटी खाल।
आज जोड़ने फिर लगे, चलन चुनावी चाल।।

फिर चुनाव की घोषणा, नेता जी बेचैन।
भीख वोट की माँगते, भरे अश्रु हैं नैन।।

वोटर ने भी चल दिया, अपना भी इक दाँव।
बिजली नेता पर गिरी, हारे अपना गाँव।।

आज चुनावी चाल का, भिन्न भिन्न है रंग।
कहीं-कहीं बदरंग है, कहीं बँट रही भंग।।

कूद पड़े मैदान में, चले चुनावी चाल।
हर दल की चिंता बढ़ी, नहीं गल रही दाल।।

सुधीर श्रीवास्तव

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दोहा -कहें सुधीर कविराय

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दो रघुवर निर्वाण
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सहन नहीं अब‌ वेदना, नहीं छूटते प्राण।
विनती सुनते क्यों नहीं, दो रघुवर निर्वाण।।

इतना तीखा आपने, दिया छोड़ जब बाण।
और विनय अब कर रहे, दो रघुवर निर्वाण।।

उसकी वाणी वेदना, संकट में हैं प्राण।
विनय करुँ मैं आपसे, दो रघुवर निर्वाण।।

चाह रहे सब आपसे, दो रघुवर निर्वाण।
भले पड़ोसी का रहे, संकट में ही प्राण।।

जिद मेरी भी आपसे, मारो चाहे बाण।
बाण मारकर ही सही, दो रघुवर निर्वाण।।
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मातु- पिता
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मातु पिता के चरण में, शीश झुकाकर माथ।
गमन किया श्री राम ने , लखन सिया के साथ।।

मातु पिता का हो रहा, अब तो नित अपमान।
इसमें बच्चे आज के, समझें अपनी‌ शान।।

सूनी आँखों में दिखे, मातु पिता का दर्द।
उनका जीवन तो बना, जैसे दूषित गर्द।।

मातु पिता अब रो रहे, रख माथे पर हाथ।
समय आज ऐसा हुआ, बस ईश्वर का साथ।।

चरणों में झुकते हुए, शर्म करें महसूस।
झुकते हैं जब आज वे, लगता देते घूस।।

चरणों में संसार है, मातु-पिता के जान।
जिसको आती शर्म है, वो बिल्कुल अज्ञान।।

मातु-पिता को देखिए, अब कितने असहाय।
जीना दुश्कर हो रहा, नया लगे अध्याय।।

बात सभी भूलो नहीं, गाँठ बाँध लो आप।
विवश नहीं अब कीजिए, मातु-पिता दें शाप।।
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विविध
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गणपति अब कुछ कीजिए, कहाँ मगन हैं आप।
कृपा आप कुछ कीजिए, या फिर दीजै शाप।।

हाथ जोड़ हनुमान जी, कहते प्रभु श्री राम।
ठंडी इतनी है बढ़ी, कर लूं क्या विश्राम।।

इन साँसों पर आपको, इतना क्यों है नाज़।
जाने कब ये दे दगा, और छीन ले ताज।।

जान रहे हम आपको, ओढ़ रखा है खोल।
कब तक ऐसे चक्र में, लिपट रहोगे बोल।।

मर्यादा का वो करें, चीर हरण पुरजोर।
और वही दिन रात ही, करते ज्यादा शोर।।

सुधीर श्रीवास्तव

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दोहा -कहें सुधीर कविराय
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साहित्य
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मातु शारदे की कृपा, होती जिसके शीश।
वही लिखे साहित्य को, बन जाता वागीश।।

शब्द सृजन की साधना, क्या है कोई खेल।
बिना सतत अभ्यास के, शब्द शब्द बेमेल।।

जन-मन के जो काम का, सृजन लिखें हम आप।
वरना सब बेकार है, बन जायेगा भाप।।

चोरी अब साहित्य की, बहुत हो रही आज।
शर्म तनिक आती नहीं, करते जो ये काज।।

सतत साधना के बिना, कौन बना कविराज।
कोई नाम बताइए, जिसे जानते आज।।

याद रहेगा बस वही, जो पावन साहित्य।
लोगों के दिल में सदा, है बन चमके आदित्य।।

मैया मेरी शारदे, दो मुझको वरदान।
मुझको भी होता रहे, शब्द सृजन का ज्ञान।।
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विरोधी
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आज आप क्यों जा रहे, नीति नियम को छोड़।
है विरोध की राह को, अहंकार से जोड़।।

कौन विरोधी आपका, नहीं आपको ज्ञान।
इतना मूरख तो नहीं, बने हुए अंजान।।

होता सच का आज है, पग-पग बड़ा विरोध।
एक काम जैसे बचा, बस डालो अवरोध।।

निजी स्वार्थ की आड़ में, करते बड़ा विरोध।
और वही जब मैं करूं, बनते बड़ा अबोध।।

जिसको माना आपने, स्वयं विरोधी आप।
वही मिटाता आ रहा, तव का सब संताप।।
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प्रशांत
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शांत भाव जो रह सके, वो उतना ही श्रेष्ठ।
बिना कहे ही मानते, उनको सब ही ज्येष्ठ।।

जितना ऊँचा भाव हो, उतना उच्च प्रशांत।
जीवन के विज्ञान का, है पावन दृष्टांत।।

शांत वृत्ति वाला सदा, आदर पाता खूब।
उत्तम उसकी भावना, रहता जिसमें डूब।।

आज समय का देखिए, लगते सभी अशांत।
वही आज बस है सुखी , जो मन से संभ्रांत।।

सबके मन का आज है, बड़ा दु:खद वृतांत।
फिर भी सबकी भावना, भीतर से आक्रांत।

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विजय पताका
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विजय पताका थामकर, आगे बढ़ना काम।
कदम नहीं पीछे हटे, नाहक हो बदनाम।।

भारत माता को नमन, कर भरना हुंकार।
विजय पताका थामकर, जाना सीमा पार।।

विजय पताका थामकर, करना तभी घमंड।
साहस अपने आपका, और सख्त भुजदंड।।

विजय पताका थामकर, हम भारत के लाल।
आन बान के संग में, दुश्मन के हम काल।।

विजय पताका थामकर, कफ़न बाँध कर शीश।
सीमा पर डटकर खड़े, बोलो जय जगदीश।।
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तुषार, ओस, कुहरा, शीत, ठिठुरन
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अब तुषार भी रंग में, आंँख दिखाए खूब।
आज कृषक भी क्या करें, गया शोक में डूब।।

ओस फसल का कर रही, अब तो सत्यानाश।
सूर्यदेव अब छोड़िए, आकस्मिक अवकाश।।

दुर्घटनाएं बढ़ गई, ले कुहरे की ओट।
संयम रखते हम नहीं, पल-पल खाते चोट।।

शीत लहर जब से बढ़ी, सबको इतना ज्ञान।
वृद्ध और बीमार की, मुश्किल में है जान।।

ठिठुरन बढ़ती जा रही, और संग में रोग।
मुँहजोरी जो भी करे, वही रहा है भोग।।
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योग क्रिया
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तन मन सुंदर चाहिए, करो नियम से योग।
दूर रहे सब व्याधियाँ, रहिए सभी निरोग।।

योग क्रिया नित जो करे, निद्रा आलस त्याग।
ऋषि मुनि कहते सभी, जीवन का अनुराग।।

योग साधना व्यर्थ है, रहो दूर सब लोग।
होगा जीवन में वही, जो होगा संयोग।।

अपने भारत में बढ़े, नित्य योग का सार।
आज विश्व मम राष्ट्र का, करता है आभार।।

योग क्रिया से आपका, तन मन होता शुद्ध।
स्वस्थ सुखी काया रहे, आप भी हों प्रबुद्ध।।
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दो रघुवर निर्वाण
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सहन नहीं अब‌ वेदना, नहीं छूटते प्राण।
विनती सुनते क्यों नहीं, दो रघुवर निर्वाण।।

इतना तीखा आपने, दिया छोड़ जब बाण।
और विनय अब कर रहे, दो रघुवर निर्वाण।।

उसकी वाणी वेदना, संकट में हैं प्राण।
विनय करुँ मैं आपसे, दो रघुवर निर्वाण।।

चाह रहे सब आपसे, दो रघुवर निर्वाण।
भले पड़ोसी का रहे, संकट में ही प्राण।।

जिद मेरी भी आपसे, मारो चाहे बाण।
बाण मारकर ही सही, दो रघुवर निर्वाण।।

सुधीर श्रीवास्तव

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दोहा -कहें सुधीर कविराय

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विविध
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तकनीकी संसार में, तैर रहे हैं लोग।
यह कोई संयोग है, अथवा कोई रोग।।

आव भगत करिए सदा, जो आये घर द्वार।
ईश्वर भी तब ही सदा, करते बाधा पार।।

मेल-जोल विस्तार को, बढ़ा रहे जो आप।
सोच समझ से चूकते, बन जाता अभिशाप।।

मातु शारदे की कृपा, सदा रहे दिन रात।
गीत गजल की आपके, जमकर हो बरसात।

दोहा पहला‌ पाठ है, कहते छंदाचार्य।
दोहा सीखे भी बिना , नहीं बनेगा कार्य।।

नियमों का पालन करें, मूरख हैं वे लोग।
नहीं समझ वे पा रहे, पाले कैसा रोग।।

स्वागत वंदन संग में, रखो हृदय मृदु भाव।
भाव भावना पाक हो, नहीं कुरेदें घाव।।

अभी न जाना आपने, मेरा असली रंग।
जानोगे जब भेद ये, रह जाओगे दंग।।

नजर आप को आ रहा, नफ़रत चारों ओर।
नहीं सुनाई दे रहा, राम नाम का शोर।।

बाहर भीतर भेद क्यों, रखते हो तुम यार।
खुलेगा इक दिन भेद ये, रोओगे जार- जार।।

बड़ा सरल है आजकल, कहना खुद को श्रेष्ठ।
हर कोई कहता फिरे, मैं ही सबसे ज्येष्ठ।।

कहलाते अज्ञान हैं, सरल आज के लोग।
जो ऐसा हैं सोचते, उनका है दुर्योग।।

कठिन राह होती सरल, संग खड़ा परिवार।
जीवन में सबसे बड़ा, ये होता आधार।।

संभल में दंगा हुआ, शिव इच्छा लो मान।
आगे आगे देखना, होगा जो उत्थान।।

बस इतनी करिए कृपा, बनें गुरू मम आप।
जल्दी से हाँ कीजिए, सौंपू अपने पाप।।

भागा भागा वो फिरे, नहीं पा रहा ठौर।
जान सका न रहस्य ये, कैसा आया दौर।।

अभी न जाना आपने, मेरा असली रंग।
जानोगे जब भेद ये, रह जाओगे दंग।।

सुधीर श्रीवास्तव

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दोहा - कहें सुधीर कविराय
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राम नाम
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राम नाम के मर्म को, जो भी लेता जान।।
पढ़ना उसको फिर नहीं, जीवन का विज्ञान।।

सुंदर मोहक लग रहा, आज अयोध्या धाम।
धाम राम जन आ रहे, छोड़-छाड़ सब काम।।

कहते जिनको हम सभी, मर्यादा के राम।
राम-नाम में छिपा है छिपा, जन मानस का धाम।।

राम कथा में राम हैं, भक्तों में हनुमान।
हनुमत जब हों ध्यान में, तभी राम दें मान।।

गये अयोध्या धाम हम, दरश मिला प्रभु राम।
राम कृपा ऐसी रही, सहज हुए सब काम।।

भरत राम के हैं प्रिये, बसे हृदय हैं राम।
कौन भरत या राम सा, संग श्रेष्ठ आयाम।।

कैकेई का राम ने, दिया भला कब दोष।
किसको दोषी मान लें,सब नियती का रोष।।
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धार्मिक
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चित्र गुप्त रखते सदा, सब कर्मों का लेख।
लेख कर्म उनके कभी, आप लीजिए देख।।

भगवन तुम लेना नहीं ,अभी धरा अवतार।
शायद सहना भी पड़े , जन मन का प्रतिकार।।

लेना जब अवतार है, तो ले लो फिर आज।
देरी से बस आपका, और बढ़ेगा काज।।

मठ मंदिर में नित्य ही, होता पूजा पाठ।
जिनकी जैसी भावना, उसका वैसे ठाठ।।

हर जन-मन को चाहिए, करे ईश गुणगान।
सुख-दुख में धारण करे, केवल उनका ध्यान।।

यहाँ वहाँ के फेर में, कहाँ भटकते आप।
राम नाम के जाप से, मिट जाता हर पाप।।

कल्कि के अवतरण का, समय बहुत है पास।
जैसे कल ही आ रहे, शिव सँदेश है खास।।

माना हमने राम जी, धीर वीर गंभीर।
भोले शंकर लग रहे, जैसे बड़े अधीर।।
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जन्मदिन
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जन्म दिवस पर आपके, दूँ आशीष हजार।
दिवस आज आता रहे, बार-बार सौ बार।।

जन्म दिवस ये आपका, लगता सबसे खास।
खुशियों की बरसात का, हमको है विश्वास।।

जन्म दिवस आता रहे, रहें आप खुशहाल।
और सदा होता रहे, ऊँचा आपका भाल।।
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नववर्ष
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नये वर्ष आरंभ का, स्वागत करिए आप।
मर्यादा में हम रहें, और करें प्रभु जाप।।

स्वागत वंदन कीजिए, नये वर्ष का आप।
आप संग संसार का, दूर रहे संताप।।

हर पल नव आरंभ हैं, जिसको इसका ज्ञान।
इसे नहीं जो जानते, गाएँ बेसुरा गान।।

आप सभी अब रोपिए, नया वर्ष नव फूल।
सुख-दुख जैसा भी रहा, तुम सब जाना भूल।।

नये साल की आड़ में, होता क्या क्या खेल।।
नहीं पता क्या आपको, कहाँ कहाँ है मेल।

गुजर गया ये साल भी, धीरे से चुपचाप।
आने वाले वर्ष में, देंगे सब नव थाप।।

गुजर गया ये साल भी, धीरे से चुपचाप।
मिश्रित अनुभव है रहा, कटु अनुभव की छाप।।

हर आहट देती सदा, नव नूतन संदेश।
पढ़ लेता है जो इसे, होता वही विशेष।।
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माता पिता
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मातु पिता का जो करे, नित प्रति प्यार दुलार।
खुशियों से होता भरा, चाहे जो भी वार।।

मात पिता को अश्रु दे, जी भर मौज उड़ाय।
पाते ऐसा दंड वो, कोई नहीं सहाय।।
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प्रदूषण
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हरियाली के नाश का, है प्रतिकूल प्रभाव।
यदि ऐसा होता रहा, सड़ता जाए घाव।।

उछल कूद जो हम करें, सब श्वाँसों का खेल।
बिना श्वाँस होगी दशा, बिन इंजन जस रेल।।


सुधीर श्रीवास्तव

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नयन
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मूक रहकर भी
बहुत कुछ कहते है,
सुख दुःख, हर्ष विषाद के
भाव भी सहते है।
हंसते मुस्कराते, रोते भी हैं
अंतर्मन के भाव खोलते भी हैं।
बहुत कुछ कहकर,
जाने कितना कुछ
अनकहे रह जाते हैं।
नयनों की अपनी ही भाषा है,
पर शायद हमें ही इन्हें
पढ़ने का सलीका नहीं आता,
तभी तो हम शिकायतें करते हैं
नयन मौन हो सब कुछ सहते हैं,
अपनी भाषा में
अपने भाव उकेरते हैं,
कोशिशें करते हैं।

● सुधीर श्रीवास्तव

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दोहा गीत - स्वप्न करें साकार

श्रेष्ठ जनों से लीजिए, जीवन पथ आधार।
उनका ही आशीष ले, करें स्वप्न साकार।।

नीति नियम भी आपके, जीवन का हो अंग।
तभी आपको दिखेगा, सुंदर जीवन रंग।।
भला नहीं होता कभी, आता समझ न सार।
सोच समझ कर कीजिए, करें स्वप्न साकार।।
श्रेष्ठ जनों से....

दुनिया से कुछ सीखिए, निज का छोड़ घमंड।
भला मिले क्या फायदा, जब पाओगे दंड।।
अपने पथ पर तुम बढ़ो, कभी न ठानो रार।
प्रेम प्यार ही से सदा, करें स्वप्न साकार।।
श्रेष्ठ जनों से.....

सीख आपको दें वही, जिसका जैसा ज्ञान।
तुम को तो करना वही, जैसा निज अभियान।
अजब-गजब है आपके, आस-पास का धार।
बिन बाधा अपने सभी, करें स्वप्न साकार।।
श्रेष्ठ जनों से.....

सुधीर श्रीवास्तव

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अपना वतन
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अपना वतन, अपनी जन्मभूमि
अपनी माँ सबको भाती है,
यही तो हमारी थाती है।
पर कहने मानने से भला क्या होता है?
धरातल पर भी दिखना चाहिए,
माँ को माँ कहने भर से
अपनी जन्मभूमि से प्यार है,
महज प्रवचन करने से
वतन वतन रटने भर से कुछ नहीं होगा।
धरातल पर दिखना भी चाहिए
हम सबको कुछ ऐसा करना चाहिए
माँ, जन्मभूमि या वतन को भी तो ऐसा लगना चाहिए।
हम अपना कर्तव्य निभाएँ,
वतन की रक्षा, स्वाभिमान की खातिर
कुछ भी करना पड़े, कर जाएँ
तब कहें वतन हमारा है।
जिस मिट्टी में जन्म लिया
जिसकी गोद में पले बढ़े
जिससे हमारी पहचान है
जो वतन हमारी शान है
तब बड़े गर्व से कहें कि
अपना वतन, अपना हिंदुस्तान है।

सुधीर श्रीवास्तव

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मृत्यु पीड़ा
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मृत्यु पीड़ा का वर्णन करना नामुमकिन है,
क्योंकि अपनों को खोने की पीड़ा
हम सब मिलकर शोक जताकर
एक दूसरे को ढाँढस बँधाकर सह लेते हैं,
यही नियम और प्रकृति का विधान है
आया है सो जायेगा
यही सोच हमें ढाँढ़स बँधाती है,
किसी अपने की मृत्यु के बाद
जीने की राह दिखाती है।
मगर मृत्यु पीड़ा का अहसास
मृत्यु की ओर बढ़ रहा जीव ही वास्तव में कर पाता है,
मगर उसकी पीड़ा/अहसास का
अनुभव बाँटने के लिए हमारे बीच
वो कभी नहीं रह पाता है।
मृत्यु पीड़ा का सटीक चित्रण, महज परिकल्पना है,
महज छलावा और कल्पना है
मृत्यु पीड़ा का बखान कोई नहीं कर सकता,
जो वास्तव में झेलता है मृत्यु पीड़ा
वो बखान करने के लिए
इस मृत्यु लोक में भला कहाँ रहता?

👉 सुधीर श्रीवास्तव

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