जो बहुत था, वो भी काम पड़ गया,
दम अहंकार का अब नम पड़ गया।
कलाई पर बांधे थे हमने जो सपने,
वक़्त के पत्थर पर सब घिस पड़ गया।
शब्दों की तलवारें, निगाहों का गुरूर,
एक सच की आंधी में थम पड़ गया।
जो खुद को आसमान समझ बैठा था,
वो बूंद-भर बनकर जमीन पर गिर गया।
कई जीतों का बोझ था कंधों पर,
एक हार में सारा भ्रम ढह गया।
आज शीशे सा साफ़ दिखता है सब,
कल जो धुंध था — वो भ्रम पड़ गया।
सीखा है जीवन का अंतिम फ़लसफ़ा,
जो झुक गया वही ऊँचा उठ गया।
आर्यमौलिक