मैं और मेरे अह्सास
सुबह की चाँदनी
अरुणोदय से सुबह की चाँदनी खिली खिली लगती हैं l
कुहासा की वज़ह से हर जगह भीगी भीगी लगती हैं ll
रात के अँधियारे को भेद कर उजालों ने
क़दम रखा l
शीतल ठंड से धरती की चादर भीनी भीनी लगती हैं ll
"सखी"
डो. दर्शिता बाबूभाई शाह