“साधना और बीमारी
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साधना वास्तव में भ्रम नहीं, पर बीमारी का इलाज है।
जब तक मनुष्य भीतर अस्वस्थ है, साधना औषधि का कार्य करती है।
पर जैसे ही मनुष्य स्वस्थ हो जाता है,
वही साधना — जो कभी उपचार थी —
अब स्वयं बीमारी का लक्षण बन जाती है।
कर्म ही स्वाभाविक स्वास्थ्य है।
साधना तब तक आवश्यक है,
जब तक कर्म विकृत है।
पर जब कर्म सहज, निर्मल और जागरूक हो जाए,
तब साधना की कोई शर्त नहीं रह जाती।
साधना को महत्व देना और कर्म को गौण मानना —
स्वस्थ होने के बाद भी औषधि पीते रहना है।
वास्तविक ज्ञान वही है,
जो किसी पुरुष या गुरु से नहीं,
बल्कि भीतर की पूर्ण स्वास्थ्य से जन्मता है —
जहाँ साधना भी मिट जाती है,
और केवल सहज कर्म शेष रहता है।
अज्ञात अज्ञानी
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