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"उन्मुक्त राह"
अज्ञान की परछाइयों में,
अब भी बंधा है इंसान,
जात-पात के जाल में उलझा,
भेदभाव का बना सामान।
दहेज, अंधविश्वास, भेद,
सबने बाँट दिया समाज,
जहाँ बराबरी का सूरज था,
वहीं छा गया अन्याय का राज।
पर अब उठ रही है चेतना,
नवयुवकों के स्वर में जोश,
अन्याय की जंजीरें तोड़ें,
समानता का करें परोष।
ना ऊँच-नीच, ना भेदभाव,
सबको मिले बराबर अधिकार,
स्त्री-पुरुष का हो सम्मान,
यही हो जीवन का आधार।
जब हर हाथ को मिले काम,
हर दिल में हो प्रेम समान,
तभी बनेगा सच्चा भारत,
जहाँ मानवता का हो मान।