व्यंग्य
जन्माष्टमी का दिखावा
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आज जब हम सब भगवान श्रीकृष्ण का
पाँच हजार पाँच सौ बावनवाँ जन्मोत्सव मना रहे हैं,
तब आप मानो न मानो कोई बड़ा काम नहीं कर रहे हैं।
क्योंकि जब हम हों या आप
नीति-अनीति, धर्म-अधर्म का भेद जो नहीं कर पा रहे हैं,
अपने आपको शहंशाह समझ रहे हैं।
माँ- बहन- बेटियों में डर भर रहे हैं
बेईमानी के सारे काम ईमानदारी से कर रहे हैं
और बड़े गर्व से साल दर साल
भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मना रहे हैं।
हर कदम पर भ्रष्टाचार, अत्याचार,
अनाचार, व्यभिचार, दुर्व्यवहार कर रहे हैं,
अपने ही माता-पिता का अपमान कर रहे हैं
जी भर कर उनकी अपेक्षा अनादर से
उनका जीना हराम कर रहे हैं,
वृद्धाश्रम में ढकेल कर बड़ा घमंड कर रहे हैं।
छोटे बड़े का अंतर भूल रहे हैं
बिना सोचे विचारे कुछ भी बोल रहे हैं,
दूसरों को रुलाकर हम-आप हँस रहे हैं,
बुद्धि, विवेक, सभ्यता, मर्यादा ताक पर रख रहे हैं,
अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ रहे हैं,
स्वार्थ की रेल पर सफर कर रहे हैं।
घर-बाहर डरी-सहमी, लुटती-पिटती
बहन, बेटियों का दर्द हम-आप महसूस नहीं कर पा रहे हैं,
और तो और अपने कृत्यों से हम ही उन्हें डरा रहे हैं।
लूट-खसोट को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ रहे हैं,
दूसरों की धन सम्पत्ति बड़े चाव से हथिया रहे हैं
अपने ही भाइयों का हक मार रहे हैं,
फिर भी इतना समझ नहीं पा रहे हैं
कि हम भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव क्यों मना रहे हैं।
शायद हम-आप इस भ्रम में जी रहे हैं
ऐसा लगता है कि जैसे हम-आप तो
जगत नियंता को भी गुमराह करने में समर्थ हो गये हैं,
गीता के उपदेशों का उपहास कर रहे हैं,
जैसे हम-आप योगेश्वर श्रीकृष्ण को आइना दिखा रहे हैं।
अपराध करके भी पाक-साफ बन रहे हैं,
औरों को बेईमान बताने में सबसे आगे दौड़ रहे हैं
और खुद को ईमानदारी के बड़े झंडाबरदार बन
बेशर्मी से उछल-उछल कर नंगा-नाचकर रहे हैं
फिर भी बड़े उत्साह से जन्माष्टमी मना रहे हैं।
बड़ा सवाल है कि हम आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?
क्या हम आप इतना भी नहीं समझ पा रहे हैं
या सब कुछ जानबूझकर कर रहे हैं
और सिर्फ दिखावा कर अपनी पीठ थपथपा रहे हैं
पाक-साफ दिखने दिखाने का शौक पूरा कर रहे हैं,
भगवान श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाकर
उन पर ही अहसान कर रहे हैं,
क्योंकि दिखावा ही सही,
उनके जन्मोत्सव को हम-आप
साल-दर-साल भव्य से भव्यतम ही तो बना रहे हैं।
सुधीर श्रीवास्तव