---
बन बैठी योगिनी — दर्शनिक अक्का महादेवी
(एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति)
त्याग दिए मैंने,
सभी बंधन —
समाज के कु-पथ, रूढ़ियाँ,
झूठे मर्यादा के आवरण।
ना रही अब किसी नाम की प्यास,
ना चाहा कोई श्रृंगार,
छोड़ दिए झूठे रिश्ते-नाते,
जिनमें बस छल का व्यापार।
मैंने तोड़ दी दीवारें,
इस देह की सीमाएँ,
क्योंकि मैं शरीर नहीं —
मैं चेतना हूँ, अनंत, अपरिमित।
जागी भीतर एक ज्वाला,
जो खोजती है परम सत्य,
नारी की आत्मा में जो साक्षात्
मल्लिकार्जुन का पावन पथ।
बन बैठी मैं योगिनी,
ना किसी की पत्नी, ना पुत्री, ना दासी —
बस एक राही,
जिसे चाहिए सिर्फ परमात्मा की झलक।
हे समाज के अंधो!
तुम क्या जानो आत्मा की पुकार,
मैं अक्का महादेवी —
जिनकी वाणी है प्रेम की धार।