मुश्किल होता है उन्मुक्त स्त्री बन जाना
उससे भी कठिन होता है एक स्त्री के लिए ये स्वीकार कर लेना कि वो खुद के लिए जी सकती है
जब उन्मुक्त गगन में विचरण करती वो पतंग की भांति धरा से दूर ...बहुत दूर मुक्त गोते लगा रही होती है तो दूर ही दूर धरा पर कोई उसकी डोर थामे रखता है...पर जाने क्यों जब वो अपनी उच्चतम बुलंदी पर होती है तो डोर थामे इंसान को खुद पर संशय हो जाता है...उसे लगता है जैसे वो अब और देर तक उस पतंग की उड़ान नहीं देख पाएगा... या शायद पतंग के आत्मविश्वास के आगे उसका आत्मबल कुछ क्षिण हो जाता है
या शायद उसे लगता है कि उस पतंग को थामे रखना उसके लिए कुछ कठिन हो गया है।
इसी डर से छोड़ देता है वो पतंग की डोर को
कई पतंगे साहसी होती है , वो जा ठहरती है किसी अज्ञात ऊंचाई पर
और कुछ पतंगे आ गिरती है पुनः उसी धरा पर ...उन्हीं कदमों को चूमती जिनसे संभाली न गई एक नाजुक सी डोर भी...
ArUu ✍️