क्या पता था, एक दिन ऐसा मोड़ भी आएगा,
जहाँ वो सब कुछ कहकर फिर से "जान" कहेगा,
और मैं… बस ख़ामोश रह जाऊँगी।
इतना कुछ होने के बाद भी,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं —
कभी कहता था प्यार करता हूँ,
पर अब उसका सहना मुझसे होता नहीं।
हमेशा उलझी, हमेशा डरी हुई मैं,
हर बार लगता — गलती मेरी ही थी।
वो तो जो मन में आया, कह देता,
और मैं, खुद को ही दोषी मानती रही।
एक बार फिर वही हुआ —
रिश्ता मैंने ही तोड़ा,
जहाँ सब कुछ एक तरफ़ा था,
वहाँ मेरा टिकना मुश्किल हो गया।
जो भी करती, जो भी कहती,
सब बेअसर चला जाता,
पर उसकी हर बात में
मैं ही कहीं ना कहीं लौट आती।
सोच बंद हो गई थी मेरी,
खुद पर ही ग़ुस्सा आने लगा था।
लगने लगा — जैसे कोई गुनाह कर बैठी हूँ,
जो ऐसे इंसान से मोहब्बत की।
वो दिन में सौ बार "I love you" कहता,
फिर अपने मन की हर बात मनवाता।
मैं मना करती, तो लड़ाई हो जाती,
और फिर वही — मेरी हर बात को
नीचा दिखा कर अपमानित कर देता।
ये एक सवाल-जवाब का रिश्ता था,
जिसे मैंने अपना समझा था।
पर उसने तो,
मुझे ही मुझसे दूर कर दिया था।
बैठ कर एक दिन जब खुद से पूछा —
"कहाँ गलती की मैंने?"
तो जाना — हर बार मैं ही सही थी।
उसकी बातों में उलझाकर
वो मुझे ही हमेशा नाकारा कहता रहा।
ये एक ऐसा रिश्ता था,
जो सिर्फ़ एक ओर से निभाया गया।