होली पर एक छंद मुक्त रचना सादर प्रस्तुत है
बढती हुई अपसंस्कृति
रास्ते में मुझे
कल एक सहपाठी नेताजी
टकरा गए।
बोले गुरु !
तुम यहाँ!
अच्छे तो हो?
मैंने कहा जी हाँ।
किंतु जरा जल्दी में हूँ। कल मिलूँगा।।
यार, तुम हमेशा जल्दी में रहते हो,
जब भी समय मांगता हूं टाल देते हो
मैं समाज में बढ़ रही
अप संस्कृति को रोकना चाहता हूं ।
और अपने संग
तुम जैसे साहित्यकारों को जोड़ना चाहता हूं ।
उनकी इस बात पर मैं रुक गया।
उनके सामने झुक गया ।
वह बोले हर साल की तरह
हम सब मिलकर कल
होलिका दहन कराएंगे।
हंसी-खुशी के साथ
फिर पैमाना भी छलकाएँगे।
मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आया।
मैंने भी तुरंत नहले पर दहला जमाया ।
आप इस तरह होलिका दहन करवा कर
कैसे अपसंस्कृति की रक्षा कर पाएंगे?
यह सुन नेता अचकचाया,
मुझे घूरा और बड़बड़ाया।
मुझसे कहा-
लगता है जैसे तेरा कोई स्क्रू ढीला है
या कल अवश्य पी होगी?
मैंने कहा यार,
क्या कहते हो?
नशे में डूब कर
वर्तमान को भुलाना मुझे नहीं आता।
इसलिए आप लोगों की तरह त्यौहार मनाना
मुझे नहीं भाता।
मेरे भाई यदि आपने सही मायने में
होलिकादहन कराया होता।
तो देश का नजारा ही कुछ और होता।
भाईचारे की भावना के साथ होती
देश की प्रगतिशीलता और संपन्नता
तब धर्म भाषा के नाम पर हम कभी ना लड़ते
ना कभी अकड़ते।
हमने उनके गले में हाथ डालकर समझाया यार,
होलिका हमारे दिलों में घुसी
काम क्रोध लोभ मोह द्वेष और अहंकार जैसी बुराइयों का दूसरा नाम ही तो है,
जिस दिन हम उन्हें दहन कर पाएंगे।
उस दिन हम सही मायने में
होलिका दहन कर पाएंगे ।
तभी हम सही मायने में
अपने देश समाज को इस बढ़ती
अप संस्कृति से बचा पाएंगे।
मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*